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देशी एंटी वायरस (व्यंग्य)

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का बताएं भैया! हम तो ठेठ गंवईहा ठहरे. कछु कहत हैं तो लोग मजाक समझत हैं. अरे भाई हमको मजाक आती ही नहीं है. लेकिन जो बात दिल से कह देत हैं (बिना दिमाग लगाये) वो मजाक बन जात है ससुरी. अगर हम बात दिमाग लगा के करत हैं तो लोगन का रोवे का परत है, का बताएं बड़ी समस्या हो गई है. अभी हम देखत रहे समस्या चहुँ ओर ठाडी है. टरने को नांव ही नहीं लेत है. लेकिन हम ठहरे गंवईहा बिना समस्या टारे हम ना टरे.

अब देखिये ना कितना शोर मचा रहता है कि कम्पूटर मा  कोई जिनावर घुस गवा है. जिसके कम्पूटर मा घुस जात है उसको कम्पूटर ठाड़ हो जात है, बिगाड़ हो जात है. कच्छू करई नई देत है. हम एक भैया से पूछे भैया ये कौन सा जिनावर है जो कम्पूटर को और तुमाये को भी हलाकान कर डारे है? तो उन्होंने बताये के वायरस होत है. एक तरह को कीट है. तो हमने पूछो "कम्पूटर में कीट को काय काम है?"तो बोले जब इंटरनेट चलत है तो जो दुश्मन बैरी होय ना, वो अपनों जासूस भेज देत है हलाकान करबे के लिए. ये कीट भी दो तरह के होत हैं, एक है मित्र कीट दुसर है दुश्मन कीट, फेर दुश्मन कीट के हटाने के लाने मित्र कीट को बुलाओ फेर दुनो में लड़ाई होत है और मित्र कीट दुश्मन कीट को खा के ख़तम कर देत है. बस इत्ती सी बात है. अब वा के लिए तो इत्ती सी बात है और हमारे जैसे देहाती गंवईहन के लिए इत्ती सारी बात है. हमारे तो भेजे में ही नहीं घुसी. चलो भलो हुवो भेजे मे नहीं घुसी, नहीं तो माथ अलग पिराई और डाक्टर की भेट पूजा अलग होती.

अब जो हमारे मित्र रहे कम्पूटर वारे, वो बड़े बुलागर रहे. कम्पूटर मा लिखत रहे, लिख लिख के बहुत बड़े लेखक बन गए. बड़ो नांव हो गयो वा को. हमने एक दिन पूछो बताओ तो भैया का लिखत हो? हमको तो कछु पतों चले. तो भईया उनने कम्पूटर खोल के दिखायो और वो बांचन लागे हम मूड हिला -हिला के सुनत रहे. एक जगह लिखे रहे,  हमकू चड्डी खरीदना है. पुरानी वाली फट गई है, वो हरे नीले पट्टे वाले कपडे की बनी थी अब वो कपड़ा नहीं मिल रहा है. हम बहुत ढूंढ़ डारे, हमारे सारे आस-पास के मित्र भी ढूंढ़ डारे, उनको भी नहीं मिल रही है. हम आपसे गुजारिश कर रहे है.कि कोई हमें बता दे कि ये चड्डी को पट्टा वाला कपडा कहाँ मिलेगो. तो बताने वारे को हम बहुत बहुत धन्यवाद देंगे. हम ये चड्डी का कपड़ा इसलिए ढूंढ़ रहे हैं कि इसको धारण करने के बाद स्वर्गिक आनंद आत है. मिल जाये तो आप भी इस्तेमाल करके देखें.

एक जगह वो लिखे रहे हमारी भैंसिया गुम गई है. तालाब में गई थी नहाने. चरवाहों वही भूल गवो, कल से नहीं आई है. हम गांव में बहुत ढूंढ़ लिए, नहीं मिल रही है. भैंसिया जाने के गम में हमारी अम्मा ने रात को दूध नहीं पियो है. उनको बड़ा सदमा लगो है, सुबह-सुबह गश खा के गिर पड़ी. इधर हमारी बीवी भी परेशान किये दे रही है. उनके मईके से दो सारे आये हुए है. गांव में  पहलवानी करते हैं. उनको दूध की जरुरत है. जब से ये आये है इनको देख के भैंसिया फरार हो गई है. अब ये सारे हमारे महीने भर की तनखा को दूध तीन दिन में पी जावेगे. मोल को दूध बहुतै मंहगो परत है. ये सारेन को देख के हमरो तो बी पी बढ़ जात है. 

श्रीमती कह रही है के दूध लेके आओ हमारे भैया लोगों के लिए, नहीं तो हम मईके जात हैं और भईया लोगो दूध नहीं मिलत है तो ये बौरा जात है कहत रहे की दूध नहीं मिलो तो जीजी! आज जीजाजी को राम-नाम-सत् समझो. तुम्हारे लिए नयो जीजा ढूंढ़ देंगे. अब बताओ भैया हम फँस गए है. एक तरफ कुंवा दूसरी तरफ खाई, और ये खाई भी हमने एक होंडा के चक्कर में खुदाई. तो भईया बाकी बात तो मैं बाद में भी लिख देगें. अभी हमारी भैंसिया को पता बताय दो. आपकी मेहरबानी होगी. मुर्रा नसल की भैंस है टेम्पलेट का रंग काला है. अगल बगल में विजेट लगे हैं. दो कान, दो सींग एक मुहं, दो आंख, चार पैर, एक पूंछ है और एक निशानी है उसके पहचान की, वो जहाँ कही भी जात है, दांत निपोर के पगुरावत रहत है. 

हमने भी कहा क्या बढ़िया लिखते हैं मान गए भैया. आप तो हमारे शहर की नाक है. अब हमें भी कुछ लिखना सीखा दीजिये ना कंप्यूटर में. देखिये अभी एक सुन्दर गजल उतर रही है. लिख तो देंगे लेकिन छापेंगे कहाँ? इस लिए हमें भी ये बुलागरी सीखा दीजिये. 

अब उनसे गुरु मन्त्र पा के नर्मदा मैईया को नांव ले के बुलागरी चालू कर दी. अब जैसे ही हमने दो चार गजल लिखी हमारे कम्पूटर पे भी दुश्मन कीट को हमला हो गवो. हमने इंजिनीयर बुलावो तो उसने बताया कि इन दुश्मन कीटों को मारने के लिए एक हजार को खर्च है  मित्र कीट की फ़ौज बुलानी पड़ेगी. हम तो डर गए थे. दे दिये हजार रूपये, भईया वो इंजिनीयर हजार रूपये की सीडी लाया और हमारे कम्पूटर में लगा के बोलो "अब ठीक हो गया है कोई समस्या नहीं है."कुछ दिन भईया बढ़िया चलो कम्पूटर, फेर एक दिन ठाड़ हो गवो. चल के नहीं दे. हमने सोचा इंजिनियर बुलाएँगे, वो फेर हजार रूपये ले जायेगा. मित्र कीट डाले हैं करके मूरख बना के चले जायेगो. 

तो हमने भी जुगत लगाईं और इसकी देशी दवाई करबे की सोची. भाई जब अंगरेजी दवाई काम नहीं करत है तो देशी दवाई बहुत फायदा करत है. बस रोग पकड़ में आ जाये. हमारे घर में लकड़ी के चक्का वारी बैल गाड़ी है. वा में जब चक्का जाम हो जाय, तब कालू राम काला वाला मोबिल आईल पॉँच रूपये का डालते रहे हैं. गाड़ी भी बढ़िया चलत है और बैलान को भी आराम है. वो भी दुआ दे रहे हैं. तो हमने ठान लिया देशी इलाज करना है कम्पूटर का. पाँच रूपये का तेल मंगाए और डाल दिये कम्पूटर में. 

बस फिर क्या था? तब से हमारा कम्पूटर शानदार चल रहा है. अब बता देते हैं का चमत्कार हुआ? जैसे ही हमने काला मोबिल आईल डाला, सारे दुश्मन कीट (वायरस) का मुंह काला हो गया. अब उनको डर हो गया. अगर बाहर निकले तो पहचाने जायेंगे, काला मुंह लेके कहाँ जायेंगे? जो देखेगा वो दुत्कारेगा. और बिरादरी वाले भी बोलेंगे.  कहाँ काला मुंह करवा के आये हो? इसलिए उस दिन से वो हमारे कम्पूटर में दुबके बैठे है. बाहर निकालने की हिम्मत नहीं कर रहे और हम मजे से बुलागरी कर रहे हैं. अगर आपको भी कम्पूटर में कोई वायरस की समस्या हो तो देशी ईलाज करके देखो. हमने किया है और उसका भरपूर लाभ उठा रहे है. बुजुर्ग कहत रहे "फायदे की चीज हो तो सबको बताओ और घाटे की है तो हजम कर जाओ, इसलिए ये बात हम बुजुर्गों का सम्मान करते हुए कह रहे हैं. भईया हम तो गंवई ठहरे…………।

चूहेदानी की सियासत……

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चूहा नामक प्राणी सभी उष्णकटिबंधीय देशों में पाया जाता है, मेरे घर के पिछवाड़ा भी उष्णकटिबंधीय क्षेत्र है, चूहा वहाँ भी पाया जाता है। बड़े-बड़े बिल खोद कर इन्होने सांपों के लिए घर बना दिए हैं, जब सांप घुसता है तो खुद भागे फ़िरते हैं। कुछ दिनों से इनकी सेना ने मेरे घर में धावा बोल दिया। इनकी नजर मेरे पुस्तक धन पर लगी हुई है। सारी रात कुतरने की डरावनी आवाजें आती हैं और मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ, सोचता रहता हूँ कि आज ये कौन सी किताब से ज्ञानार्जन करने में लगे हुए हैं, उसका पता तो सुबह ही चलेगा। जब इनके द्वारा कुतरे हुए पन्ने खाद बनकर इधर उधर उड़ते फ़िरेगें। दुख: की बात यह हैं कि कुछ नव साहित्यकारों ने अपनी पुस्तकें मुझे टिप्पणी लेखन के लिए भेज रखी हैं, मेरे टिप्पणी लिखने से पहले ही कहीं ये अपनी टिपणी न कर दें। रात भर उंघते हुए गुजर जाती है।

एक लेखक के घर पर पुस्तकों का ही ढेर मिलेगा, कौन सा खलमाड़ी का घर है, जहाँ नोटों का अम्बार मिलेगा और ये कुतर-कुतर उसका स्वाद देखेगें, लेकिन मेरी किताबों को काट कर इन्होने मुझे निर्धन करने की जरुर ठान ली है। पता नहीं गणपति महाराज क्यों नाराज हो गए जो अपनी सेना को पुस्तकें कुतरने के लिए भेज दिया। 

हम तो जैसे तैसे नुकसान सह कर इन्हे कोस रहे थे कि अचानक मालकिन फ़ुंफ़कारते हुए आई - "दिन भर कम्प्यूटर बैठे उंघते रहते हो, पता भी है इधर चूहों ने गदर मचा रखा है। दीवान में घुस कर गद्दे रजाईयों को काट रहे हैं, मेरी नई साड़ी और ब्लॉउज को भी काट डाला, जबकि मैने सिर्फ़ 2 बार ही उसे पहना था। इन चूहों को ठिकाने लगाओ। नहीं तो समझ लेना फ़िर…।"

मैं निरीह प्राणी की तरह मालकिन के मुंह को देखे जा रहा है, एक बेबस आदमी कर भी क्या सकता है। एक अंग्रेजी फ़िल्म देखी बरसों पहले, जिसमें एक छोटी सी चूहिया को पकड़ने के चक्कर में मकान मालिक सारी विद्याएं अपनाता है आखिर में अपने मकान से भी हाथ धो बैठता है। तब भी चूहिया पकड़ में नहीं आती और अंत में उसके सिर पर नाचते रहती है। सबसे बड़ी बात यह है कि कितने चूहे हैं इसका पता नहीं चलता। सबकी शक्ल एक जैसी ही है। तीन चूहों को जैसे-तैसे पकड़ कर घर के बाहर छोड़ कर आया। जैसे ही कमरे में घुसा, वैसा ही एक चूहा और घूमते हुए दिखाई दिया। शक होने लगा कि बाहर फ़ेंका हुआ चूहा मुझसे पहले ही घर में प्रवेश कर गया।

इस महा विपदा से बचने के लिए सभी परिजनों की आवश्यक बैठक आहूत की गई, जिसमें सभी के सलाह मशविरे से चूहा निदान की परियोजना पर विचार विमर्श शुरु हुआ। मैने कहा कि -"बाजार से चूहे मारने वाली दवाई मंगवा ली जाए। जिसे खाने के बाद ये मर जाएगें और मुक्ति मिल जाएगी।" 

मालकिन ने कहा कि -"कहीं भीतर घुस कर मर गए तो बदबू आते रहेगी और पता भी नहीं चलेगा, किस जगह मरे हैं, एक काम करो, चूहे मारने वाला केक ले आओ।"

"तुम मंगवा क्यों नहीं लेती, बच्चे तो दुकान जाते ही हैं"

"मैने भेजा था इन्हें, लेकिन दुकानदार बच्चों को चूहा मार दवाई नहीं देते और न ही चूहामार केक देते हैं।"

"यह भी बड़ी समस्या है, लगता है अब मुझे ही जाना पड़ेगा"

तभी बालक ने सलाह दी - "पापा! एक चूहेदानी ही ले आईए, चिंटु के घर में भी बहुत चूहे थे, उसके पापा चूहेदानी लेकर आए और उसमें टमाटर रखते ही दो चूहे पकड़ में आए।"

बालक की सलाह सभी जम गई, तय हुआ कि चूहेदानी खरीद कर लाई जाए। हमारा मार्केट जाना भी बड़े राजशाही ठाठ-बाट से होता है, कोई ऐरे गैरे थोड़ी हैं जो ऐसे ही उठ कर चले जाएगें। कपड़े अस्तरी किए गए, जूते पालिश होकर आए, काली घोड़ी (हीरो होंडा) को धोया और पोंछा गया। इतनी तैयारी होते देख कर काम वाली महरी से रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया - "कथा पूजा की तैयारी हो रही है क्या मालकिन, जो इतना जोर शोर से तैयारी चल रही है?"

"अरे नहीं! महाराज बाजार जा रहे हैं, चूहेदानी खरीदने के लिए। इसलिए सब तैयारी करनी पड़ रही है।"मालकिन ने शर्ट पर अस्तरी फ़िराते हुए जवाब दिया।

हम तैयार होकर मार्केट पहुंचे, अब ऐसे ही किसी की दुकान में चले जाएं तो हमारी शान के खिलाफ़ हैं। एक बड़ी दुकान में जाकर बैठ गए, दुकानदार ने पान की गिलौरी मंगवाई और हमसे दर्शन शास्त्र के कई सवाल धड़ाधड़ पूछ डाले। हम भी उसके मनमाफ़िक जवाब देते रहे। दो घंटे क्लास चली। आखिर हमने उसके नौकर को रुपए देकर चूहेदानी खरीदने भेजा। उसका नौकर चूहेदानी लेकर आया, एक दो बार हमने उसके द्वार को बंद करने के लिए स्प्रिंग से खिलवाड़ किया तो उसकी अटकनी का टांका निकल गया। अब उसे बदलने के लिए भेजा। हमारा नाम लेने पर दुकानदार ने बदल कर दे दिया। 

अब चूहेदानी घर लेकर पहुंचे तो बालक देखते ही खुश हो गया। तुरत-फ़ुरत टमाटर काटकर चूहेदानी में लटकाया गया और उसे चूहामार्ग पर लगाया गया। आधी रात हो गई देखते हुए, लेकिन चूहा एक भी न फ़ंसा। उसके आस-पास घूम कर चला जाता था। थक हार कर सभी अपने बिस्तर के हवाले हो गए, लेकिन चूहा पकड़ने का रोमांच इन्हे सोने नहीं दे रहा था। रोमांच इतना अधिक था कि जैसे जंगल में शेर पकड़ने के लिए पिंजरा लगाया हो। 

जैसे तैसे सुबह हुई, बालक ने सबसे पहले चूहेदानी को देखा, टमाटर ज्यों का त्यों लटका हुआ था। चूहेदानी का दरवाजा खुला हुआ था। मालकिन कहने लगी कि "अभी तक एक भी चूहा पकड़ में नहीं आया है, चिंटु के यहाँ तो लगाते ही, दो चूहे पकड़ाए थे। यह चूहेदानी ठीक नहीं है। चूहों को पता चल गया है कि यह उन्हे पकड़ने का फ़ंदा है।"

बेटी ने सलाह दी कि "चूहे टमाटर नहीं खाते, देखते नहीं क्या किचन में रोटियों का टुकड़ा उठा कर ले जाते हैं। इनके लिए आलू के भजिए बनाए जाएं और उसे पिंजरे में लगाया जाए, भजिए के लालच में आएगें तो जरुर फ़ँस जाएगें।"

सलाह मालकिन को जम गई, उसने आलू के पकोड़े बनाए और एक पकोड़ा चूहेदानी में लगा दिया। दिन भर व्यतीत होने पर भी एक चूहा नहीं फ़ँसा। रात्रिकालीन सेवा के लिए चूहेदानी का स्थान बदला गया। सुबह होने पर दिखा कि चूहेदानी का दरवाजा खुला हुआ है और पकोड़ा लटके-लटके सूख गया है।

हम चाय पीते हुए कम्प्यूटर में अखबार पढ रहे थे, आते ही मालकिन फ़ट पड़ी, फ़ट पड़ी इसलिए कि एक सुनामी सी आ गई थी, अगर बरसती तो दो-चार फ़ुहारें ही गिरती - "ये कैसी चूहेदानी लेकर आए हो, दो दिन हो गए एक भी चूहा नहीं फ़ँसा। जाओ इसे वापस करके आओ।" 

"बिका हुआ माल वापस नहीं होता, दुकानदार ने कह कर दिया है, चूहा पकड़ाने की कोई गारंटी नहीं । अगर कोई धोखे से फ़ंस जाए तो वह आपके लिए बोनस है।"

"मुझे नहीं मालूम कुछ, आप इसे लौटाकर चूहे मारने का केक लेकर आईए।"मालकिन ने फ़रमान सुना दिया।

"देखो भई, थोड़ा सब्र से काम लो, सब्र का फ़ल मीठा होता है। मानो कि यह चूहेदानी कांग्रेस है और चूहा "आम आदमी पार्टी"। देखा कि नहीं तुमने आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में कितने आन्दोलन किए और कांग्रेस की सरकार के नाक में दम कर दिया। आखिर कांग्रेस ने सब्र से काम लिया, अब देखो चूहा उसकी चूहेदानी में फ़ँसा कैसे फ़ड़फ़ड़ाकर उछलकूद कर रहा है। न सत्ता का भजिया निगलते बन रहा है, न उगलते है। बस इंतजार करते जाओं एक दिन इन चूहों को इसी चूहेदानी में फ़ँसना है। चूहों की अम्मा कब तक खैर मनाएगी… सियासत को समझे करो…… 

वेलेन्टाईन के लटके झटके

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वेलेन्टाईन पखवाड़ा मनाया जा रहा है, प्रेम के व्यावसायिकरण के नाम पर यह एक नई बीमारी हमारे देश में प्रकट हुई है। इसी बिमारी पर हमने कुछ चटखारे लिए हैं……… प्रस्तुत हैं वेलेन्टाईन के लटके झटके

हैप्पी रोज डे………

आओ रोज डे मनाएं, फ़ूलम फ़ूल मचाएँ
मुंह पर बाँध दुपट्टा गोरी फ़ूल मेघ रचाएँ
फ़ूल मेघ रचाएँ उड़ेगें काले घोड़े पे सवार
लाँग ड्राईव पर होगें खूब मजे करेगें यार
कैम्प फ़ायर कर नदी किनारे टैंट लगाएँ
रम की बोतल खोल आओ रोज डे मनाएँ

लव यू………………… प्रपोज डे

रोज डे निकल गया हम बता रहे हैं सोज
लव यू बोल तुझे डोकरी कर रहे परपोज
कर रहे परपोज जवानी में जे कह न पाए
चला चली की बेला में तोहरा रुप सुहाए
करते रहे प्रिय इंतजार समय बदल गया
बीपी चीनी चेक होते रोज डे निकल गया

चाकलेट डे………

नदिया किनारे गोरी तू तो कर ले आकर भेंट
आया लेकर गर्म गर्म डेयरी मिल्क चाकलेट
डेयरी मिल्क चाकलेट मैने ब्लेक में खरीदा
दू घंटा लाईन में लगा तब हुआ बहुत फ़जीता
प्रेम हाट न बिकाय सुन लेय तू अल्हड़ छोरी
सोन मछरिया पकड़ेगें नदिया किनारे गोरी…।

टेडी डे……

सीधी साधी चाल तेरी कैसे बलखावै टेढी रे
लिया गिफ़्ट तेरे लिए आज कहलावै टेडी डे
आज कहलावै टेडी डे लभ यू लभ यू डियर
रख सिरहाने सोएगी तू झबरीला टेडी बियर
कर प्रणय निवेदन स्वीकार बात मान मेरी
इठलाना इतराना छोड़ सीधी साधी चाल तेरी

प्रामिस डे………

मैं वादा करता हूँ तुम्हारे सारे वचन निभाऊंगा
कपड़े लत्ते लाँग ड्राईव फ़िल्में रोज दिखाऊंगा
फ़िल्में रोज दिखाऊंगा संग ले जाऊंगा दिल्ली
चल चल मेरी रुप कुंवर काहे होती तू चिल्ली
अपने दिल से पूछो प्यार तुमसे ज्यादा करता
प्रामिस डे पर प्यार भरा तुमसे मै वादा भरता

हग डे

हग का जीव जंतु मनुष्य से, जन्म का है नाता
बिहनिया संझनिया हगता, जो कुछ वो है खाता
जो कुछ वो है खाता ,हग नित्य क्रिया में शामिल
लोटावन साव दांत निपोरे, हो जावे जब गाफ़िल
अंग्रेजी में अर्थ बदल कर, खो गया प्रेमालिंगन
हग डे हग डे हो गया, प्रेम परिणीति का सिंचन

किस डे

लाईन लगी है भोरे से किस किस को किस दे
किलो लिपिस्टिक खत्म जब मनाया किस डे
जब मनाया किस डे बूढे बुढिया लगे लाईन में
आया सोडा सा उछाल जो मिला दिया वाईन में
मौसम बसंताया जब नयन मिले बांके छोरे से
दीवाली सा प्रसाद बंट रहा लाईन लगी भोरे से

वेलेन्टाईन डे

बड़े बिहिनिया उठकर बीबी ने बेलन ट्राई किया
दू-तीन बेलन जमा के तोहफ़ा बेलनेटाईन दिया
तोहफ़ा बेलनेटाईन दिया भागे प्रेमाधिकारी संत
दू पाटन के बीच में फ़ँसे वेलेन्टाईन पियारे कंत
हुआ पिछवाड़ा लालम दिन कटा भूंक भूंक कर
अइसन बेलनेटाईन मना बड़े बिहिनिया उठकर

तकरार डे

कल ही बेलेनटाईन मना बिखरा प्यार ही प्यार
टेडी बियर के कलर पर जमके हुई जूतम पैजार
जमके हुई जूतम पैजार टेडी बिखरा हो तार तार
चिथड़े उड़ते इधर उधर हमरी जान बचाओ यार
जब आई असलियत सामने मुहब्बत हो गई फ़ना
दिल हो गया पुर्जा पुर्जा कल ही बेलेनटाईन मना

किक डे

बढते-बढते बात-बात इतनी जियादा बढ गई
बिहनिया बिहिनिया कबूतरी अटारी पे चढ गई
अटारी पे चढ गई मोहल्ले में मच गया हल्ला
कल थी जो गुटर गुं आज हुई हल्लम गुल्ला
रार तकरार खत्म न हुई सिर पे चढ आई रात
लात घूंसे किक तक पहुंची बढते बढते बात॥

ब्रेक अप डे

इसकी उसकी नहीं पटी इससे उससे पट जाय
तू नहीं तो और सही इसमें ही राजा राम सहाय
राजा राम सहाय कर लेव अलग अगल चूल्हा
दू दिन की दुल्हन बनी और दू दिन के दुल्हा
कीटाणु पड़ गए प्यार में रात कयामत सी कटी
होय गई ब्रेक अप पार्टी इसकी उसकी नहीं पटी

उपसंहार डे

अब के फ़टफ़टिया त्यौहार में मिली जो हमको सीख
फ़ास्ट फ़ास्ट में ट्रबल खूब दिन में सितारे रहे दिख
दिन में सितारे रहे दिख कहा पप्पा मम्मा का मानो
डूब जाए बीच भंवर में नैया फ़िर तुम अपनी ही जानो
खूब मजा लो आपस में मिल जुल करके ब्यौहार में
नहीं टिकाऊ प्यार व्यार अंग्रेजी फ़टफ़टिया त्यौहार में

© तोप रायपुरी

अंकलहा परसाद जी का काव्य संग्रह

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जब से अक्षर ज्ञान हुआ और हिज्जा करके पढने-लिखने लगे तब से अंकलहा परसाद जी साहित सेवा कर रहे हैं। जब भी मौका मिलता, वे अपनी डायरी निकाल कर दो-चार गीत कविता या किस्सा कहानी सुनाने के लिए सदा तत्पर रहते। खेती-किसानी के चक्कर में अधिक पढ नहीं पाए पर गढ़े अधिक थे। गाँव का आदमी सभी विषयों की समझ अच्चे से रखता है। कोई ऐसे ही ठग-जग नहीं सकता। अंकलहा परसाद जी अब वानप्रस्थ काल में चल रहे हैं और जीवन की जिम्मेवारियों से लगभग मुक्त होने की कगार पर हैं। ससुराल से जो टीन पेटी दहेज में मिली थी उसमें अपनी डायरियाँ हिफ़ाजत से सहेज कर रखी हैं। उनके लिए यह बहुत बड़ी पूंजी है, अगर चोरी हो गई या दीमक पढ गई तो हृदयाघात भी संभव है।
उनके संगी जंहुरिया सब बड़े-बड़े साहितकार हो गए, कई किताबें उनकी छप चुकी थी और अब उनकी गिनती नामी गिरामियों में होती थी। अंकलहा परसाद जी भकला ही रह गए, आदमी जन्म से भकला नहीं होता वरन उसे समय भकला बना देता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर एक दिन उनके ज्येष्ठ पुत्र तिहारु ने कहा - "बाबू जी, कविताओं की इतनी सारी डायरी आपने संभाल कर रखी है, उनकी एकाध किताब ही छपवा लीजिए, कम से कम हमारी आने वाली पीढी तो उससे प्रेरणा लेगी?"
"क्या करना है बेटा छपवा कर, जैसे गाड़ी चल रही है, चलने दो।"अंकलहा परसाद गहरी सांस लेकर बोले
"नहीं बाबूजी! छपवाना ही चाहिए, देखिए कितने लोग अपनी किताब छपवा कर लखपति हो गए, घर बैठे रायल्टी खाते हैं और सिर्फ़ किताब लिखते हैं। हमको भी छपवाना चाहिए, आप भी तो चालिसों साल से लिख रहे हैं।"तिहारु ने जोर देते हुए कहा।
"कौन छापेगा?"
"आप पाण्डुलिपि बनाईए और हम प्रकाशकों को भेजते हैं, जिसे पसंद आएगी वह सम्पर्क करेगा और बात जम गई तो छाप भी देगा।"
अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि बनाई और 3-4 प्रकाशकों को भेज दी। चौपाल में बैठकर रोज दोपहर को डाकिए का इंतजार करते, उसके आने पर अपनी चिट्ठी पत्री की जानकारी लेते। डाकिए दूर से ही कह देता - "आपकी चिट्ठी नहीं आई है बाबूजी।"सुनकर वे उदास कदमों से घर की ओर चल पड़ते। बहू से भोजन लगाने कहते और खाकर वहीं पाटे पर लेट जाते। यही उनकी दिनचर्या हो गई थी। कभी अपनी डायरियाँ निकालकर पढने लग जाते, कभी तिहारु के बच्चों को बाल गीत सुनाकर उनका मन बहलाते। एक बरस बीत जाने पर प्रकाशकों ने कोई जवाब नहीं दिया। बाबूजी को उदास देखकर एक दिन तिहारु ने कहा - "कुछ प्रकाशक मेरे शहर वाले दोस्त की जानकारी में है, उनसे चलकर मिलते हैं। हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए।"
अंकलहा परसाद जी को तिहारु की बात जंच गई, अगले दिन धोती कुरता सदरी धारण कर दोनो बाप बेटा शहर पहुंच गए। तिहारु का दोस्त उन्हें एक प्रकाशन में ले गया। वहाँ कम्प्यूटर पर एक शख्स मुड़ गड़ाए बैठा था, कांच का दरवाजा खुलने की आहट सुनकर उसने सिर उठाया और तिहारु के दोस्त से बोला - आईए आईए, कैसे आना हुआ, काफ़ी दिनों बाद दीदार हुए आपके?
"चाचा को अपनी कविताएँ प्रकाशित करवानी है, इसी सिलसिले में आपसे मिलने चले आए।"कुर्सी पर बैठते हुए तिजऊ ने कहा।
"बैठिए, बैठिए आप लोग, हमारा तो धंधा ही प्रकाशन का है। छाप देगें किताब, पाण्डुलिपि लाए हैं?"
"हाँ! लाए हैं, ये लीजिए"अंकलहा परसाद जी ने सुपर फ़ास्फ़ेट खाद की बोरी से बने झोले से पाण्डुलिपि निकाल कर प्रकाशक की टेबल पर रख दी।
प्रकाशक ने उसे उलट पलट कर देखा, दो चार पन्ने खोले और उन पर नजर डाली। तब तक अंकलहा जी सांस रोके उसकी गतिविधि का अवलोकन कर रहे थे, जैसे ईसीजी के बाद रिपोर्ट पढते हुए डॉक्टर की तरफ़ मरीज देखता है। पाण्डुलिपि देखने बाद प्रकाशक ने कहा - "कविताएँ तो अच्छी हैं आपकी। कितनी प्रतियाँ छपवानी है तथा पेपर बैक या जिल्द वाली?"
"जिल्दवाली, कम से कम एक हजार, उससे कम क्या छपवाएगें"
"मालूम है एक हजार में कितना खर्च आएगा, एक हजार प्रति छपवाने में 60,000 रुपए लगेगें।"
"मैने तो सुना था कि प्रकाशक किताब छापते हैं और फ़िर बेचने के बाद रायल्टी के तौर पर लेखक रकम भी देते हैं।"अंकलहा परसाद जी ने गंभीरता से कहा।
"अब आप कौन से निराला या दिनकर हैं, जो आपकी लिखी हुई कविताएं बिक जाएगी और उससे हम कमाई कर लेगें। ये तो आपको अपनी रकम लगा कर छपवानी पड़ेगी। हम आपको 500 प्रति दे देगें और 500 हम रखेगें। अगर कोई बिक गई तो साल में हिसाब करके विक्रय की कुल रकम के 15% का चेक आपको भेज देगें।"प्रकाशक ने फ़ंडा समझाया।
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी निराश हो गए - "मुझे नहीं मालूम था कि प्रकाशक ऐसा भी करते हैं, मैने तो सुना था कि प्रकाशक अपनी रकम लगा कर छापते हैं और लेखक को रायल्टी देते हैं। यहाँ तो विपरीत हो रहा है, लेखकी रकम से ही छाप कर उसी से प्रकाशक कमाई करने लगे।"तिहारु ने कहा।
"देखिए, तिहारु राम जी, प्रकाशन चलाना कोई मामूली काम नहीं है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है हम लोगों को। अभी तक हमारे प्रकाशन से 800 से अधिक किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर सभी किताबों को अपनी रकम लगा कर छापते रहे तो हमारा दीवाला ही निकल जाएगा। वैसे भी वर्तमान में पाठक पुस्तकें खरीद कर कहाँ पड़ता है और जो खरीद कर पढते हैं उनकी संख्या बहुत ही कम है। जब पाठक को पैसे से पुस्तक खरीदनी होगी तो आपकी क्यों खरीदेगा। जिसका मार्केट में नाम चल रहा है उसे खरीदकर पढना चाहेगा। पुस्तक छपवाना तो स्वातं: सुखाय कार्य है। 
"ओह, मतलब लेखक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता?"
"पड़ता है न, लेखक को प्रसिद्धी मिलती है, हमारे जैसे नामी प्रकाशन से छपवाने पर लेखक की विश्वसनीयता बनती है, उसकी प्रकाशित किताब उत्कृष्ठता की श्रेणी में आ जाती है, इसलिए अपना पैसा लगा कर छपवाईए, फ़िर हम आपके खर्च से पुस्तक का विमोचन करवा देगें बड़े साहित्यकारों को बुलवा कर, अखबारों में समाचार प्रकाशित होगें, आपकी पुस्तक की समीक्षा छपवानी होगी। लेखक बनना कोई आसान  काम नहीं है दादा और हम तो ऐसे लेखकों तथा कवियों की रचनाएं छापते हैं जो इस दुनिया में ही नहीं है, जो रायल्टी फ़्री हैं और आसानी से बिक जाते हैं। नए लेखकों पर पूंजी लगाने का कौन रिस्क ले?"
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि अपने झोले के हवाले की और उसके दफ़्तर से बाहर निकल आए -"60 हजार खर्चा कहाँ से पूरा करेगें। मुझे नहीं छपवानी किताब। ये तो तिहारु जबरदस्ती कर के ले आया यहाँ तक।"
"और भी बहुत सारे प्रकाशन हैं चाचा, उन्हें देख लेते हैं। सभी ऐसे ही थोड़ी होगें?"तिजऊ ने कहा। यहां से निकल कर वे दो-चार प्रकाशनों में गए, लेकिन सभी ने 50 हजार के उपर का ही खर्च बता दिया और अपनी रकम लगा कर कोई छापने को तैयार नहीं हुआ। अंकलहा परसाद जी गाँव लौट आए और इन बातों को भूल गए।
दीवाली के बाद फ़सल कटाई शुरु हुई, वरुणदेव की कृपा से इस बार फ़सल अच्छी हो गई। तिहारु को फ़िर पिता जी की पुस्तक छपवाने की जिद चढ गई। एक दिन सांझ को खलिहान में सब बैठे थे तो उसने पिताजी से चर्चा शुरु कर दी - "धान की फ़सल भी अच्छी हो गई, इस साल किताब छपवा लीजिए पिताजी।"तिहारु ने पिताजी को कहा।
"अरे पुस्तक छपवाने में बहुत खर्च है, रहने दे, क्या करेगें छपवा कर।"अंकलहा परसाद जी ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा
"अब चाहे कितना भी खर्च हो जाए, किताब तो छपवानी ही है, आप चाहे माने या न माने।"तिहारु ने जिद करते हुए कहा
"डोकरा का दिमाग भी सठिया गया है, जब बेटा कह रहा है छपवाने के लिए तो तुम छपवा  क्यों नहीं लेते।"तिहारु की माँ ने तिहारु की बात में बात मिलाते हुए कहा।
"छपवा ले भई नहीं मानता तो। मैं तो सोच रहा था कि फ़ालतू खर्च करना ठीक नहीं है। रुपया पैसा है, गांठ में रहे तो काम आता ही है।"
अगले दिन तिहारु पाण्डुलिपि लेकर शहर चला गया। उसके एक रिश्तेदार प्रिंटर ने कम पैसे में छापने में सहमति दे दी। भाग दौड़ कर पुस्तक छप गई। तिहारु पुस्तक लेकर घर आ गया। पुस्तक देखते ही अंकलहा परसाद जी की आँखों में चमक आ गई बोले - "मेरा बेटा तो सरवण कुमार है, भगवान सब को ऐसा ही सपूत दे।"
पुस्तक छपने के बाद विमोचन जरुरी हो जाता है, विमोचन होने से गाँव खोर के और शहर के सभी रिश्तेदार संबंधियों एवं इष्ट मित्रों को पता चल जाता है कि वे लेखक हो गए हैं। 
अंकलहा परसाद जी कई लेखकों के पुस्तकों के विमोचन के साक्षी बने थे, उन्हे पता था कि पुस्तक विमोचन के लिए किन चीजों की आवश्यकता पड़ती है। जब तक पुस्तक विमोचन में कोई नामी साहित्यकार नहीं पधारते तब तक उस पुस्तक विमोचन को मान्यता हासिल नहीं होती और न ही लेखक को। कोई ऐसा वक्ता होना चाहिए जो पुस्तक पर ऐसे कसीदे पढे कि लगे उससे बड़ा साहित्यकार इस धरा में पैदा ही नहीं हुआ है। धरा धन्य हो गई ऐसा साहित्यकार पाकर। बीच बीच में दो चार बार उनकी कृति को महान बताते हुए, लेखक को महान कहे। उनके लेखक को कालजयी बताते हुए प्रशंसा के पुल बांध दे। भले ही पुस्तक पढने के बाद गारे का वह पुल धराशाई हो जाए। 
अब पुस्तक विमोचन के लिए नामी गिरामी साहित्यकारों का समय लेते हुए अंकलहा परसाद जी संकलहा परसाद हो गए। जो दिन भर ठाले बैठे मक्क्षिकामर्दन करते रहते थे उन्होने भी अंकलहा परसाद जी को इतनी व्यस्तताएँ बताई कि वे हलकान हो गए। कई साहित्यकारों ने कहा कि फ़लाने को बुलाएगें तो वे नहीं आएगें, किसी ने कुछ और किसी ने कुछ आपत्तियां जताते हुए अपनी मांग भी रख दी। उन्हें अब इतने सारे गिरोह दिखाई देने लगे कि दिमाग ही घूम गया, सोचने लगे कि पुस्तक छपाने से अधिक श्रम का कार्य तो विमोचन करवाना है। तंग आकार उन्होने तय किया कि अपने काव्य संग्रह का विमोचन गांव में ही कराएगें। तारीख तय करके उन्होने गायत्री यज्ञ कराने के लिए गायत्री मंदिर के पुजारी को तय कर लिया। सारे रिश्तेदारों को निमंत्रण दे दिया। जितने चाहें आ जाएं, आधा बोरा चावल अधिक लगेगा और क्या होगा।
नियत दिन को सुबह गायत्री यज्ञ प्रारंभ हो गया। गायत्री के साथ सरस्वती पूजन भी हुआ। पुस्तक का पूजन करने के पश्चात एक तख्त पर अंकलहा परसाद जी सपत्नी विराजे, सभी मेहमानों ने तिलक लगाकर उनका सम्मान किया। तिहारु के ससुर ने शाल और श्री फ़ल भेंट कर समधी का सम्मान किया और उनके काव्य संग्रह का इतना जोरदार बखान किया कि बड़े बड़े साहित्यकार शरमा जाएं। अगर कोई कब्र में सुन लेता तो काव्य संग्रह पढ़ने के लिए कब्र से बाहर निकल आता। प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात विमोचन समारोह सम्पन्न हो गया। अब अंकलहा परसाद जी अपने काव्य संग्रह को झोले में धरे हुए घूमते रहते हैं और जो भी उन्हे काव्य संग्रह भेंट करने लायक दिखाई देता है, उसे तत्काल झोले से पुस्तक निकाल कर सप्रेम भेंट करते हैं। 
मुझे भी उन्होने गत वर्ष राजिम मेला में काव्य संग्रह भेंट किया। मैने देखा कि गंवई गांव की खुश्बू से सराबोर कविताओं से काव्य संग्रह गमक रहा था। लोमस ॠषि आश्रम में नागाओं के समीप बैठकर उनसे जब काव्य संग्रह पर चर्चा हुई तो उन्होने आप बीती सुनाई। उनकी आप बीती सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गई। कितना कठिन है आज के जमाने में साहित्यकार बनना। 

(डिस्क्लैमर - इस रचना से किसी जीवित या मृत व्यक्ति का संबंध नहीं है, अगर किसी से साम्यता स्थापित हो जाती है तो वह संयोग माना जाएगा)

राजिम कुंभ में एक दिन

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चित्रोत्पला गंगा महानदी, सोंढूर और पैरी नदी के त्रिवेणी संगम पर माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष मेला भरता है तथा इस मेले का समापन शिवरात्रि को होता है। भारत में तीन नदियों के संगम स्थल को पवित्र माना जाता है, यहाँ लोकमान्यतानुसार धार्मिक कर्मकांड सम्पन्न कराए जाते हैं। राजिम त्रिवेणी संगम में मेले का आयोजन कब से हो रहा है इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती पर सन 2000 में इसका सरकारीकरण हो गया। फ़िर 2004 में भाजपा की सरकार सत्ता में आने के बाद इसे कुंभ का नाम दे दिया गया। जिससे स्वस्फ़ूर्त पारम्परिक आयोजन सरकारी आयोजन में बदल गया। इसके साथ ही माने हुए साधू संतों का आगमन प्रारंभ हो गया। धार्मिक कथा-प्रवचनों के आयोजनों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी जन मनोरंजार्थ होने लगा। धीरे-धीरे राजिम मेला कुंभ में परिवर्तित हो गया।
राजिम कुंभ समिति सचिव गिरीश बिस्सा
कुंभ के आयोजन की तैयारियाँ एक माह पूर्व प्रारंभ हो जाती हैं, कुंभ में समन्वय स्थापित करने के लिए शासन के अधिकारियो के साथ स्थानीय जनप्रतिनिधियों को मिलाकर एक आयोजन समिति का निर्माण किया जाता है। कुंभ का संचालन एवं आगतों की आवास, भोजन एवं सुरक्षा की व्यवस्था महत्वपूर्ण होती है। कुंभ में हजारों साधू-संत जुटते हैं जिनकी व्यवस्था करने के लिए समिति वालों को दिन रात एक करना पड़ता है साथ ही विशेष ध्यान रखा जाता है कि कहीं अव्यवस्था न फ़ैले। लोग मेला देखने जाते हैं और घूम फ़िर कर मनोरंजन करके चले आते हैं पर उन्हें पता नहीं रहता कि इस भव्य आयोजन के पार्श्व में दिन-रात मेहनत करने वाले कौन लोग हैं। राजिम कुंभ के सचिव के रुप में गिरीश बिस्सा 10 वर्षों से आयोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाल रहे हैं, सहयोग करने के लिए इनके साथ कर्मचारियों का बड़ा अमला है, जिससे कार्यों का निष्पादन होता है।
राजिम कुंभ में उदय भैया
बचपन में देखा था कि मेला प्रारंभ होने के एक सप्ताह पहले से ही बैल गाड़ियों का रेला प्रारंभ हो जाता है। लोग अपना खाना दाना लेकर हफ़्ते या पखवाड़े भर मेले में ठहरने की व्यवस्था करके आते थे। अब वे बैलगाड़ियां कहीं दिखाई नहीं देती, वर्तमान में आवागमन के आधुनिक साधन होने के कारण लोग सुबह मेले में आते और रात तक लौट जाते हैं। मैने मेले का पैदल ही भ्रमण किया। मेले में मनोरंजन से लेकर खाने-पीने की वस्तुओं की दुकानों के साथ खिलौने, दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं तथा महिलाओं द्वारा खरीदी जाने वाली श्रृंगार सामग्री का विशेष आकर्षण दिखाई दिया। नदी  की रेत में मुरम की अस्थाई सड़क बना कर तत्कालिक नगर बसाया गया है। 
संत नगर
लोमश ॠषि आश्रम में गत वर्ष नागा साधुओं एवं स्थानीय साधुओं के बीच मारपीट और हंगामें की खबर सामने आई थी। इस वर्ष नागाओं को लोमश ॠषि आश्रम में स्थान नहीं दिया गया। सुरक्षा के लिए पर्याप्त पुलिस की व्यवस्था की गई थी। लोमश ॠषि आश्रम से मेले का विशाल दृश्य दिखाई देता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर में दर्शनार्थियों की लाईन लगी हुई थी। मंदिर के समीप ही नागलोक की प्रदर्शनी लगाई गई है। इसके साथ ही इस तरह की अन्य पाँच प्रदर्शनियाँ भी लगी हैं, इनको जंगल सफ़ारी, स्वर्ग नर्क इत्यादि नाम दिए गए हैं। 
नाग लोक की झांकी
हम नागलोक की प्रदर्शनी देखने पहुंचे। प्रदर्शनी में लाईट एवं साऊंड के संयोजन से जीवंत प्रभाव उत्पन्न किया गया है, द्वार टिकिट लेने वालों की लाईन लगी हुई थी। प्रवेश द्वार पर चिखली दुर्ग निवासी प्रकाश वैष्णव से मुलाकात होती है, इस प्रदर्शनी के वे मालिक हैं। पूछने पर कहते हैं कि - इस वर्ष मेलें कम ही लोग आए, उम्मीद से कम कमाई हो रही है। प्रदर्शनी बनाने में 1 लाख रुपया लग जाता है, फ़िर कर्मचारियों एवं बिजली का खर्च अलग देना पड़ता है साथ ही ट्रांसपोर्टिंग का खर्च पहले से अधिक हो गया है। ऐसी स्थिति में अगर 3 लाख रुपए से कम आवक हुई तो खा-पीकर सब बराबर हो जाता है।"इस कुंभ में वे 10 वर्षों से लगातार झांकी लगा रहे हैं, पहले एक ही झांकी होने से अच्छी आमदनी हो जाती थी, लेकिन अब झांकियों की संख्या बढने से आमदनी में कमी हो गई।
नाग लोक में नाग कन्याओं का सुवा नृत्य 
झांकियों का विषय धार्मिक रखा जाता है। जिसमें देवी देवताओं की फ़ाईवर की मूर्तियाँ लगाई जाती हैं, जिसे बिजली की मोटरों द्वारा संचालित करके झांकियों में जीवंत प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। इसके बाद हमने जंगल सफ़ारी नामक झांकी का अवलोकन किया। जिसमें जंगल के जानवरों को दिखाया गया है। कहानी में जंगल के जानवर बैठक करके सशरीर स्वर्ग जाना चाहते हैं तथा इसके लिए वे गणेश जी एवं महादेव से विनती करते हैं। इसके पश्चात अनुमति मिलने पर वे स्वर्ग पहुंच कर मेनका, रंभा, उर्वशी नामक अप्सराओं के संग नृत्य करते दिखाई देते हैं। ग्रामीणों के स्वस्थ मनोरंजन का यह उत्तम उपाय है तथा इसे देख कर बच्चे भी रोमांचित होते हैं।
मुफ़्त में तारामंडल दर्शन
कुलेश्वर मंदिर के समीप ही एक स्थान पर लम्बी लाईन लगी हुई थी, देखने पर पता चला कि संस्कृति विभाग की तरफ़ से यहाँ पर मुफ़्त तारामंडल दिखाया जा रहा है। बड़ी संख्या में महिलाएं सौंदर्य प्रसाधन के सामान खरीदती दिखाई दे रही थी। मुख्य मंडप की तरफ़ बढने पर चश्मे की दुकान लगाए सुनील वंशकार से मुलाकात होती है। ये जबलपुर से मेले में दुकानदारी करने आए हैं। पूछने पर बताया कि - इस वर्ष मेले में कम लोग आए हैं, आसाराम बापू का कार्यक्रम होता था तो मेले में उनके शिष्यों की अधिक भीड़ होने से अच्छी कमाई हो जाती थी। उनके जेल जाने की वजह से कार्यक्रम नहीं हो पाया।"आगे कहते हैं कि -"वो अपराधी है कि नहीं यह तो न्यायालय तय करेगा, परन्तु उनके समर्थकों के आगमन से हमारी तो अच्छी कमाई हो जाती थी।"
गोदना गोदवा ले न……
चश्मे वाले समीप ही गोदना की दुकान सजी हुई है, यहाँ भिन्न-भिन्न तरह के गोदने के डिजाईन दिखाई दे रहे थे। इस दुकान के मालिक कलीम हैं। पूछने पर पहले तो अपना नाम लल्लू बताते हैं फ़िर कहते हैं कि "मेरा नाम कलीम है। फ़ाफ़ामऊ से आया हूँ और राजिम कुंभ में सन 2000 से प्रतिवर्ष आ रहा हूँ।"आमदनी के विषय पर पूछने पर कहते हैं कि "अबकि बार आमदनी कुछ कम ही है, ले-देकर दैनिक खर्च निकल रहा है।"गोदना करना इनका पारम्परिक पेशा है, पहले इनके पिता जी करते थे 1991 से अब इन्होने अपना पुस्तैनी धंधा अपना लिया। ये वर्ष भर मेलों में घूम कर रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। जिससे बच्चों का लालन पालन हो सके। इनका सारा समय मेलों और यात्राओं में बीत जाता है। दो महीने बस घर में रहते हैं।
मुख्य मंच राजिम कुंभ
मेलों के विषय में पूछने पर ये बताते हैं कि "हमारी यात्रा जेठ के महीने में अभार माता छतरपुर मेले से प्रारंभ होती है, फ़िर मंडौर ललितपुर का मेला करते हैं। सावन में सोनभ्रद शिवद्वार का मेला 1 महीने चलता है, भादो में काशी धाम बनारस चले जाते हैं। कार्तिक में रायपुर बंजारीधाम,  अगहन में बाराबंकी का महादेवा मेला, पूष में गोरखनाथ का मेला गोरखपुर, मकर संक्राति के खिचरी तिहार के बाद छत्तीसगढ़ आ जाते हैं जिसमें राजिम कुंभ, शिवरीनारायण मेला के पश्चात चैत्र नवरात्र में कामाख्याधाम गाजीपुर चले जाते हैं, यह मेला नवरात्र में एक महीने चलता है फ़िर दो महीना आराम करते हैं और फ़िर यही कार्यक्रम शुरु हो जाता है।
खैनी बनाओ और खाओ
गोदना से रक्त जनित बीमारियाँ फ़ैलने के विषय में कहते हैं कि - मैं पूरा ध्यान रखता हूँ कि इसके द्वारा एच आई वी न फ़ैले। गोदना से पहले डेटाल लगाता हूँ, एक गोदना गोदने के बाद मशीन की सुईयां बदल देता हूँ तथा रीगल कम्पनी की सुइयों का ही प्रयोग करता हूँ, इस मशीन से गोदना करने पर खून नहीं निकलता है, स्याही सिर्फ़ त्वचा की पहली परत के नीचे तक ही जाती है। साथ ही गोदना करने के बाद हल्दी लगा दी जाती है। हल्दी सबसे बड़ी एन्टीबायोटिक है। यह हमारा खानदानी पेशा है, इसलिए सारी सावधानी बरती जाती है। इस बातचीत के मध्य एक लड़की गोदना गोदाने के लिए आ जाती है। वह अपने हाथ में सिर्फ़ अंग्रेजी के दो अक्षर "P k"लिखवाती है और पुरा नाम लिखवाने की बजाए संकेत से ही काम चलाती है।
उखरा वाली
राजिम के मेले में "उखरा"बेचने वाले प्रतिवर्ष आते हैं, मेले की यही खई-खजानी है। धान की लाई को गुड़ या गन्ना रस में सान कर उसे मीठा कर दिया जाता है, पहले तो आठ आने में बहुत सारी मिल जाती थी। लेकिन अब इसका छोटा पैकेट 10 रुपए और बड़ा पैकेट 20 रुपए में मिलता है। शकुंतला ने उखरा की दुकान लगा रखी है। कहती है कि - मंहगाई बहुत बढ गई है। इसलिए उखरा का भी दाम बढाना पड़ा। वरना मुद्द्ल भी निकालना कठिन है। उसके बच्चे दुकान के आस पास ही घूम रहे हैं। साथ ही एक ढिमरिन चना बेच रही है। कुल्फ़ी, आईसक्रीम, गन्ना रस, चाट पकौड़ी, मिठाई, खिलौनों इत्यादि की दुकाने सजी हुई है। सभी को मेले से आमदनी की प्रतीक्षा है।
खिलौनों की दुकान
पहले मेले में गिलट के आभुषणों की दुकाने खूब दिखाई देती थी। लेकिन अब दिखाई नहीं दी, लगता है अब इनका चलन कम हो गया है। इनका स्थान आर्टिफ़िसियल ज्वेलरी ने ले लिया है। लोहार के बनाए हुए खेती एवं घरेलू उपरकर्णों की दुकाने भी नदारत हो गई है। सिर्फ़ चौकी बेलना बेचता हुआ एक बढई दिखाई दिया। एक स्थान पर दारु पीकर झगड़ा करता हुआ रामकंद बेचने वाला दिखाई दिया। आस पास के दुकानदारों ने कहा कि इससे वे बहुत परेशान हैं। सुबह से शाम तक पिए रहता है और दुकानदारों से रार करते रहता है।
डोर पर जिन्दगी
अब हम संतों के मंडप की तरफ़ पहुंचे, यहाँ पर एक लड़की रस्सी पर चलकर संतुलन साधने वाला खेल दिखा रखी थी। नटों का यह परम्परागत पेशा है। तरह तरह के करतब दिखा कर जीविकोपार्जन करते हैं। हजारों साल से ये कौतुक दिखाने का पेशा चला आ रहा है। राजे रजवाड़ों के खत्म होने के बाद इन्हें मेले-ठेलों में प्रदर्शन करना पड़ता है, वरना इन नटों को राजाश्रय प्राप्त होता था और राजपरिवार के मनोरंजन के लिए सदैव उपलब्ध रहते थे। छोटी सी लड़की बांस को गले में लटकाए सिर पर कलश रखे रस्सी पर चलकर संतुलन साध रही थी, नीचे बिछे हुए तौलिए पर लोग इच्छानुसार पैसे डाल रहे है जिन्हें उसकी माँ सकेल रही थी।
व्यवस्थाओं में व्यस्थ प्रताप पारख
संतों के कुंभ स्नान करने के लिए नदी की रेत को हटा कर विशाल जल कुंड तैयार किया गया है। इसके प्रवेश द्वार पर मंत्री द्वय के फ़्लेक्स लगे हैं। कुछ स्नान कर रहे थे तो कुछ लोग किनारे बैठ कर खैनी घिस रहे थे। अखाड़ों के संतों महंतो को डोम बना कर दिए गए हैं, जिसके पास जितनी बड़ी फ़ौज है, उसके डोम उतने ही बड़े हैं। संस्कृति विभाग के कर्मचारी इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में लगे हुए दिखाई दिए। एक स्थान पर प्रताप पारख से मुलाकात होती हैं। संतों के अस्थाई नगर के बीच कुंभ में आने वाली विशिष्ट लोगों के लिए चायपानी की व्यवस्था की गई है। इसकी जिम्मेदारी शिवनंदन दूबे मुस्तैदी से निभा रहे हैं। मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुति की जिम्मेदारी राकेश तिवारी, युगल तिवारी संभाल रहे हैं तथा सतपाल, समीर टल्लू, सुधीरे दुबे, प्रमोद पाण्डे कुंभ की व्यवस्था संभालने में सक्रीय हैं।
शंकराचार्य मंडप
लोमश ॠषि आश्रम के पास ही नागा साधुओं का डेरा लगा हुआ है, भभूत रमाए नंग धंड़ग साधू मेलार्थियों को आकर्षित करते हैं। धूने की अग्नि सिलगाए चिलम से धुंआ उड़ाते दिखाई देते हैं। मै जब इनके टोले में पहुंचा तो एक युवा नागा साधू ने करतब दिखाना शुरु किया। पहले अपने लिंग को एक डंडे पर लपेट लिया फ़िर उस डंडे पर दोनो तरफ़ एक एक साधू को खड़ा कर दिया, लोग दांतों तले अंगुली दबा कर इस कौतुक को देख रहे थे। फ़िर कहने लगा कि - इसे कहते हैं पावर, है कोई जो यह कर सके। इस तरह उसने कई करतब दिखाई और इसके बाद उदय मुझसे कई तरह के सवाल करता और रास्ते भर पैदल चलते हुए मैं उसकी शंकाओं का समाधान करते रहा। इसके पश्चात हम चाय की तलब पूरी करने टेंट में आ गए।
कुलेश्वर महादेव में दर्शनार्थी एवं पुलिस व्यवस्था
चाय पानी के पश्चात दिन ढलने लगा, मौसम भी कुछ नरम बना हुआ था, बदलियों से लग रहा था कि कभी भी बरस सकती हैं। अगर बरसात होती है तो इतने सारे लोगों को सिर छुपाने के लिए जगह तलाशनी पड़ेगी। मुख्य प्रवेश द्वार के समीप गीता प्रेस गोरखपुर वालों का स्टाल लगा है। साथ ही आर्युवेदिक दवाई वाले तथा ज्योतिष भी मेले का लाभ उठा रहे हैं। पुलिस की पैट्रोलिंग करती गाड़ियाँ एवं बैरिकेट के समीप कंट्रोम रुम से सुरक्षा पर नजर गड़ाए अधिकारी दिखाई देते हैं। इस बीच संतों की कलश यात्रा आती दिखाई देती हैं, मैं कैमरे से 2-4 चित्र लेता हूँ, एक परसुधारी संत मुझे फ़ोटो लेते हुए देखकर अपने मंडप में मिलने के लिए कहते हैं, शायद उन्हें फ़ोटुओं की जरुरत होगी। लेकिन मेरे पास इतना समय नहीं था कि उनसे मंडप में मिलने जाऊं।
कुछ माला मुंदरी हो जाए मेला कि निशानी
पूजा की सामग्री बेचने वालों की दुकाने सजी हैं, इसमें कुछ लोग इलाहाबाद, प्रयाग, मालवाचंल के खंडवा निमाड़ क्षेत्र, बनारस इत्यादि से आए हुए हैं। राजिम कुंभ विशेषता यह है कि जिस स्थान पर लगता है वहां तीन जिलों की सीमाएं मिलती हैं, एक तरफ़ लोमश ॠषि आश्रम धमतरी जिले में है तो दूसरी तरफ़ राजीव लोचन मंदिर गरियाबंद जिले में आता है और नयापारा नगर रायपुर जिले में। तीन जिलों के प्रशासन के संयुक्त प्रयास से ही राजिम कुंभ का सफ़ल आयोजन होता है। संस्कृतियों, धर्मों, पंथों एवं मेलानुरागियों का मिलन क्षेत्र अब राजिम कुंभ बन गया है। समन्वित सहयोग एवं प्रयास से ही यह भगीरथ कार्य सम्पन्न होता है।

(डिस्क्लैमर - सभी चित्र एवं लेखन सामग्री लेखक की निजी संपत्ति हैं, इनका बिना अनुमति उपयोग करना कापीराईट के अधीन अपराध माना जाएगा।)

छत्तीसगढ़ का मधुबन धाम

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त्तीसगढ़ अंचल में फ़सल कटाई और मिंजाई के उपरांत मेलों का दौर शुरु हो जाता है। साल भर की हाड़ तोड़ मेहनत के पश्चात किसान मेलों एवं उत्सवों के मनोरंजन द्वारा आने वाले फ़सली मौसम के लिए उर्जा संचित करता है। छत्तीसगढ़ में महानदी के तीर राजिम एवं शिवरीनारायण जैसे बड़े मेले भरते हैं तो इन मेलों के सम्पन्न होने पर अन्य स्थानों पर छोटे मेले भी भरते हैं, जहाँ ग्रामीण आवश्यकता की सामग्री बिसाने के साथ-साथ खाई-खजानी, देवता-धामी दर्शन, पर्व स्नान, कथा एवं प्रवचन श्रवण के साथ मेलों में सगा सबंधियों एवं इष्ट मित्रों से मुलाकात भी करते है तथा सामाजिक बैठकों के द्वारा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास होता है। इस तरह मेला संस्कृति का संवाहक बन जाता है और पीढी दर पीढी सतत रहता है।
मधुबन धाम का गुगल मैप
कुछ स्थानों पर मेले स्वत: भरते हैं तो कुछ स्थानों पर ग्रामीणों के प्रयास से लघु रुप में प्रारंभ होकर विशालता ग्रहण कर लेते हैं। ऐसा ही एक स्थान छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले स्थित कुरुद तहसील अंतर्गत रांकाडीह ग्राम हैं। यहाँ 35 वर्षों से मधुबन धाम मेला फ़ाल्गुन शुक्ल पक्ष की तृतीया से एकादशी तक भरता है। मधुबन धाम रायपुर व्हाया नवापारा राजिम 61 किलोमीटर एवं रायपुर से व्हाया कुरुद मेघा होते हुए 69 किलोमीटर तथा ग्लोब पर  20040’4986” उत्तर एवं 81049’4262” पूर्व पर स्थित है।
मधुबन धाम का रास्ता और नाला
मधुबन लगभग 20 हेक्टेयर भूमि पर फ़ैला हुआ है। इस स्थान पर महुआ के वृक्षों की भरमार होने के कारण मधुक वन से मधुबन नाम रुढ हुआ होगा। यह स्थान महानदी एवं पैरी सोंढूर के संगम स्थल राजिम से पहले नदियों के मध्य में स्थित है। राजिम कुंभ स्थल से हम नयापारा से भेंड्री, बड़ी करेली होते हुए मधुबन धाम पहुंचे। यहाँ पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मेले के दौरान संतों के निवास के लिए संत निवास नामक विश्राम गृह बनाया हुआ है। आस पास के क्षेत्र में चूना से चिन्ह लगाए होने अर्थ निकला कि मेले की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई हैं।
बोधन सिंह साहू खैरझिटी वाले
विश्राम गृह का अवलोकन करने के पश्चात मेरी मुलाकात खैरझिटी निवासी 82 वर्षीय बोधन सिंह साहू से होती है। राम-राम जोहार के पश्चात उन्हें कुर्सी देने पर वे कहते हैं - 35 वर्षों से मैं मधुबन क्षेत्र में कुर्सी तख्त इत्यादि पर नहीं बैठता। भूमि पर ही बैठता हूँ और नंगे पैर ही चलता हूँ। ईश्वरीय कृपा से आज तक मेरे पैर में एक कांटा भी नहीं गड़ा है।"वे ईंट की मुंडेर पर बैठ जाते हैं और हमारी चर्चा शुरु हो जाती है। मेला जिस जमीन पर भरता है वह जमीन रांकाडीह गाँव की है। मेरे पूछने पर वो कहते हैं कि इस गाँव में कोई भी डीही नहीं है। जिसके कारण इस गांव का नाम रांकाडीह पड़ा हो।
संत निवास मधुबन धाम
मेले के विषय में मेरे पूछने पर कहते हैं कि - "मेरा गांव खैरझिटी नाले के उस पार है। हमारे गांव में गृहस्थ संत चरणदास महंत रहते थे। वे तपस्वी एवं योगी थे। उनके मन आया कि मधुबन में मंदिर स्थापना होनी चाहिए, रांकाडीह के जमीदार से भूमि मांगने पर उसने इंकार कर दिया। इसके पश्चात वे घर लौट आए। एक दिन उनकी पत्नी ने चावल धो कर सुखाया था और गाय आकर खाने लगी। महंत ने गाय को नहीं भगाया और उसे चावल खाते हुए देखते रहे। यह दृश्य देखकर उनकी पत्नी आग बबूल होकर बोली - आगि लगे तोर भक्ति मा। तो महंत ने कहा कि - मोर भक्ति मा आगि झन लगा। मैं हं काली रात 12 बजे अपन धाम म चल दुहूँ। (मेरी भक्ति में आग मत लगा, मैं कल रात 12 बजे अपने धाम को चला जाऊंगा। अगले दिन रात 12 बजे बाद महंत ने बैठे हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया। बात आई गई हो गई।
मधुबन धाम के मधुक वृक्ष
बोधन सिंह आगे कहते हैं कि - पहले यह घना जंगल था तथा जंगल इतना घना था कि पेड़ों के बीच से 2 बैल एक साथ नहीं निकल सकते थे। महंत के जाने के बाद यहां पर कुछ लोगों को बहुत बड़ा लाल मुंह का वानर दिखाई दिया। वह मनुष्यों जैसे दो पैरों पर खड़ा दिखाई देता था। देखने वालों ने पहले उसे रामलीला की पोशाकधारी कोई वानर समझा, लेकिन वह असली का वानर था। उसके बाद हम सब गांव वालों ने इस घटना पर चर्चा की। खैरझिटी गाँव में अयोध्या से बृजमोहन दास संत पधारे। उन्होने यहाँ यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। हम सबने जाकर रांकाडीह के गौंटिया से यज्ञ में सहयोग करने का निवेदन किया तो उन्होने पूर्व की तरह नकार दिया। लेकिन हम सब ने जिद करके यहाँ यज्ञ करवाया जो 9 दिनों तक चला। तब से प्रति वर्ष यहाँ यज्ञ के साथ मेले का आयोजन हो रहा है।
मधुबन धाम के विभिन्न समाजों के मंदिर
रांकाडीह निवासी शत्रुघ्न साहू बताते हैं कि "इस मेले में 11 ग्रामों खैरझिटी, अरौद, गिरौद, कमरौद, सांकरा, भोथीडीह, रांकाडीह, चारभाटा, कुंडेल, मोतिनपुर, बेलौदी के निवासी हिस्स लेते हैं। मेला स्थल पर विभिन्न समाजों के संगठनों ने निजी मंदिर एवं धर्मशाला बनाई हैं। साहू समाज का कर्मा मंदिर, देशहा सेन समाज का गणेश मंदिर, निषाद समाज का राम जानकी मंदिर, आदिवासी गोंड़ समाज का दुर्गा मंदिर, निर्मलकर धोबी समाज का शिव मंदिर, झेरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, कोसरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, लोहार समाज का विश्वकर्मा मंदिर,  कंड़रा समाज का रामदरबार मंदिर, मोची समाज का रैदास मंदिर, कबीर समाज का कबीर मंदिर, गायत्री परिवार का गायत्री मंदिर, कंवर समाज का रामजानकी मंदिर, मधुबन धाम समिति द्वारा संचालित उमा महेश्वर एवं हनुमान मंदिर, लक्ष्मीनारायण साहू बेलौदी द्वारा निर्मित रामजानकी मंदिर, स्व: मस्त राम साहू द्वारा निर्मित हनुमान मंदिर स्थापित हैं।"
सरोवर में विराजे हैं भगवान कृष्ण
मधुबन में मेला आयोजन के लिए मधुबन धाम समिति का निर्माण हुआ है, यही समिति विभिन्न उत्सवों का आयोजन करती है। फ़ाल्गुन मेला के साथ यहां पर चैत नवरात्रि एवं क्वांर नवरात्रि का नौ दिवसीय पर्व धूमधाम से मनाया जाता है तथा दीवाली के पश्चात प्रदेश स्तरीय सांस्कृति मातर उत्सव मनाया जाता है, जिसकी रौनक मेले जैसी ही होती है। चर्चा आगे बढने पर बोधन सिंह बताते हैं कि - मधुबन की मान्यता पांडव कालीन है, पाँच पांडव में से सहदेव राजा ग्राम कुंडेल में विराजते हैं और उनकी रानी सहदेई ग्राम बेलौदी में विराजित हैं, यहाँ से कुछ दूर पर महुआ के 7 पेड़ हैं , जिन्हें पचपेड़ी कहते हैं। इन पेड़ों को राजा रानी के विवाह अवसर पर आए हुए बजनिया (बाजा वाले) कहते हैं तथा मधुबन के सारे महुआ के वृक्षों को उनका बाराती माना जाता है।
हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला
ऐसी मान्यता भी है कि भगवान राम लंका विजय के लिए इसी मार्ग से होकर गए थे। इस स्थान को राम वन गमन मार्ग में महत्वपूर्ण माना जाता है। मेला क्षेत्र के विकास के लिए वर्तमान पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर ने अपने पूर्व विधायक काल विशेष सहयोग किया है। तभी इस स्थान पर शासकीय राशि से संत निवास का निर्माण संभव हुआ। मधुबन के समीप ही नाले पर साप्ताहिक बाजार भरता है। सड़क के एक तरफ़ शाक भाजी और दूसरी मछली की दुकान सजती है। होटल वाले ने बताया कि मेला के दिनों में यहां पर मांस, मछरी, अंडा, मदिरा आदि का विक्रय एवं सेवन कठोरता के साथ वर्जित रहता है। यह नियम समस्त ग्रामवासियों ने बनाया है। यदि कोई इस स्थान पर इनका सेवन करता है तो उसे बजरंग बली के कोप का भाजन बनना पड़ता और विक्रय करने वाले को पुलिस पकड़ लेती है।
शत्रुघ्न साहू मधुबन धाम समिति पदाधिकारी
आस पास से सभी ग्राम साहू बाहुल्य हैं, गावों की कुल आबादी में 75% तेली जाति की हिस्सेदारी है। हम मंदिरों के चित्र लेते हैं, बाजार क्षेत्र में मेले में दुकान लगाने के लिए आबंटन होने से काफ़ी शोर गुल हो रहा था। हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला के चित्र लेने के पश्चात हम तालाब में स्थित कालिया मर्दन करते हुए श्रीकृष्ण की प्रतिमा का चित्र लेते पहुंचते हैं, तभी वहाँ पर गायों का झुंड आ जाता है, इससे हमारी फ़ोटोग्राफ़ी में चार चाँद लग जाते हैं, कृष्ण प्रतिमा के पार्श्व में गायें चरती हुई दिखाई देती हैं। कृष्ण का गायों के साथ जन्म जन्म का संबंध है। इसलिए गायें भी अपनी भूमिका निभाने चली आती हैं। तालाब में पचरी बनाने का कार्य जारी है। मेले को देखते हुए तैयारियाँ युद्ध स्तर पर हो रही हैं। आगामी फ़ाल्गुन शुक्ल की तृतीया (3 मार्च) से एकादशी (11 मार्च) तक मेला सतत चलेगा। हम मधुबन की सैर करके वापस राजिम कुंभ होते हुए घर लौट आए। 

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तार-तार कांच, लाल पीला प्रहरी और माओवादियों का हंगामा : काठमांडू

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नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
सुबह तय समय पर आँख खुल गई, कैमरे की बैटरी चार्जिंग में लगी दिख रही थी अर्थात पाबला जी ने रात को मेरे कैमरे की बैटरियाँ चार्जिंग में लगा दी थी। मौसम पनीला बना हुआ था। हल्की हल्की बूंदा बांदी जारी थी। हम स्नानाबाद से होटल की लाबी में आ गए। राजीव शंकर मिश्रा जी ने चाय तैयार करवा रखी थी। नगरकोट जाने वाले ब्लॉगर तैयार होकर एक एक कर लाबी में एकत्र हो रहे थे। चलते चलते एक फ़ोटो हम सब ने खिंचाई और गाड़ी में सवार हुए। होटल में पार्किंग की जगह कम होने के कारण हमारी गाड़ी फ़ंसी हुई थी। पाबला जी गाड़ी निकालने की कोशिश कर रहे थे, मैं सामने की सीट पर था, गाड़ी के पीछे गिरीश भैया और राजीव शंकर मिश्रा जी थे। दुबारा रिवर्स करने पर भड़ की ध्वनि उत्पन्न हुई। लगा कि कुछ टकराया है गाड़ी से। पीछे लगे कैमरे ने कुछ नहीं दिखाया। मैने मुडकर देखा तो पीछे का कांच फ़ूट गया था।
नेपाल की सुबह
पाबला जी ने गिरीश भैया से गाड़ी में बैठने कहा और वे बिना पीछे देखे आगे बढ गए। रास्ता खराब होने के कारण ट्रैफ़िक जाम होने का अंदेशा बताया था, अगर हम पाँच बजे से पहले नहीं चलते तो 3-4  घंटे ट्रैफ़िक जाम में खराब हो जाते, सो हम जल्दी ही चल पड़े थे। कांच टूटने की बोहनी हो चुकी थी, अब आगे का दिन कैसा होगा राम ही जाने। नीली छतरी वाले का सुमिरन करके वापसी की यात्रा शुरु हो गई थी। मुंह अंधेरे हम काठमांडू से चल पड़े। राजीव शंकर मिश्रा के बताए रास्ते पर चल कर हम त्रिभुवन राज मार्ग पर पहुंच गए अब हमें मुग्लिंग में जाकर बांए मुड़ना था, तब तक सीधा ही चलना था। 
सुबह काम पर जाता किसान
ज्यों ज्यों हम काठमांडू की उपत्यका से नीचे आते जा रहे थे त्यों त्यों दिन की रोशनी दिखाई देने लगी। जिस स्थान पर जाम लगने की आशंका थी वह स्थान हम पार कर चुके थे। हमने बजे काठमांडू के बाहरी इलाके में नागधुंगा चेक पोस्ट के पास पेट्रोल डलवाया सुबह का समय हो और लोटाधारी न दिखें, ये संभव ही नही है। लेकिन हमें नेपाल में सुबह सड़क के किनारे शौच करते नर नारी नहीं दिखाई दिए। लगभग 70 किलोमीटर तक तथा आते वक्त भी कोई भी लोटाधारी दिखाई नहीं दिया। भारत में तो प्रवेश करते ही पता चल जाता है कि हम भारत में हैं। सड़क के किनारे और रेलपटरियों पर शौच करना यहाँ के नागरिकों का परम धरम है और इसे कर्तव्य मान कर श्रद्धापूर्वक निपटाया जाता है।
नारायणी नदी और पुल
एक स्थान पर सुंदर दृश्य देखकर हमने गाड़ी रोकी, तब तक सूरज निकल चुका था। दुकान में चाय पूछने पर उसने मना कर दिया तो हमने लीची का ज्यूस ले लिया। चलो इसी से काम चलाया जाए। आगे चलकर हम मुग्लिंग पहुच रहे थे, यहाँ से नारायणगढ़ लगभग 35 किलो मीटर था। हमने योजना बनाई थी कि लगभग 10 बजे तक लुम्बिनी पहुंच जाएगें। लुम्बिनी में घूम कर  कुछ घंटे फ़ोटो ग्राफ़ी करेगें और शाम होते तक सीमा से पार हो जाएगें।एक स्थान पर गाड़ी रोककर हम लोगों ने नाश्ता किया। मुग्लिंग प्रवेश करने पर सड़क पर कुछ वाहन रुके हुए दिखाई दिए। मैने सोचा कि यहाँ पर कोई टोल बैरियर होगा। क्योंकि नेपाल में डंडा लगाकर बैरियर खड़ा नहीं किया जाता। टोल बैरियर होने का संकेत सड़क के बीच में मार्गविभाजक पर लगा दिया जाता है।
सीढीदार खेत
लेकिन यहाँ मामला और ही कुछ था। हमने गाड़ी रोक दी, साथ ही हमारा सोचना था कि पराए देश में किसी से उलझना ठीक नहीं है, भारत होता तो कुछ भी कर सकते थे। पराए देश के नियम कानूनों का भी पता नहीं होता। जब से राजीव शंकर मिश्रा ने मुर्गी वाला कानून बताया था तब से मैं और चौकन्ना हो गया था। सड़क पर मुर्गी देखते ही ब्रेक मार देता था। यहाँ जाम लगा हुआ दिखाई दे रहा था। तभी एक ट्रैफ़िक पुलिस वाला आया, उसने गाड़ी का नम्बर देखते हुए बगल से निकल जाने को कहा तथा बताया कि चुनाव की मांग को लेकर माओवादियों ने आज नेपाल बंद का आह्वान किया है। आप लोग चाहें तो निकल जाएं, वरना खड़े रहें। गिरीश भैया अचानक उस पर भड़क गए। मैं अंचभित हो गया, पाबला जी गिरीश भैया के मुंह की तरफ़ देखने लगे। उन्होने बात संभाली, पुलिस वाला भी तैश में आ गया था। 
सड़क किनारे नेपाली मकान (आधुनिकता का प्रभाव)
हम आगे बढे, चौराहे पर झंडे लिए भीड़ और कैमरा लिए पत्रकार उपस्थित थे। उन्होने रोकने की कोशिश की, लेकिन हम बच कर आगे बढ गए। नदी का पुल पार किया और आगे बढने पर मुझे लगा कि जिस सड़क से हम आए थे, वह सड़क नहीं है, हम किसी और रास्ते पर जा रहे हैं, क्योंकि यहाँ पर एक विद्र्युत निर्माण की युनिट भी दिखाई दी। गाड़ी रोक कर टुरिस्टर वाले से पूछा तो उसने बताया कि यह मार्ग पोखरा जाता है। हमने गाड़ी वापस की और पुन: उसी चौराहे पर आ गए जहाँ हड़ताली जमा थे। चौराहे से हमने गाड़ी सज्जे पासे मोड़ी तो कुछ लोग हल्ला करते हुए पीछे दौड़ने लगे। पाबला जी ने बैक मिरर में देखते हुए गाड़ी रोक ली। कुछ लोग मेरी खिड़की पर आए और कहने लगे कि "एक बेरामी है, उसे नारायणगढ़ तक ले जाईए।"मेरी समझ  में नहीं आया "बेरामी"क्या होता है। फ़िर उन्होने बताया कि कोई बीमार बूढा है जिसे नारायणगढ में इलाज करवाना है। मैने उन्हें गाड़ी में बैठ जाने कहा।
नारायणी नदी में गिरी जेसीबी  मशीन
हम नारायणगढ़ की ओर बढे। रास्ते में वह स्थान भी आया जहाँ पर जेसीबी लोडर नदी में गिरा हुआ था। हमने कार रोक कर उसकी फ़ोटो ली। लड़के ने बताया कि आज सब जगह हड़ताल और नेपाल के वाहन चलने नहीं दिए जा रहे। लगभग 10 बजे कुछ गाड़ियाँ फ़िर खड़ी दिखाई दी हमने उनके बगल से गाड़ी आगे बढाई, लौटते हुए एक कार वाले ने बताया कि आगे जाम लगा है, इसलिए हम रुकने के लिए होटल तलाश करने जा रहे हैं। हम आगे बढे तो जुगेड़ी के पास पुलिस थाना था, उसके सामने सिपाही खड़े थे तथा थाने के बराबर में ही एक होटल था। सिपाही ने गाड़ी आगे बढाने से मना कर दिया। वह लड़का बोला कि मैं इनसे बात करके आता हूँ। उसके प्रयास से भी गाड़ी आगे जाने नहीं दी। बताया कि भारतीय गाड़ियों के साथ तोड़ फ़ोड़ कर चालकों से साथ माओवादी मारपीट कर रहे है। लड़का और बूढा गाड़ी से उतर कर थाने के सामने बैठ गए और हमने गाड़ी होटल में लगा दी।
पाबला जी फ़ोटासन में
होटल अच्छा था, सुबह जल्दी चलने के कारण पेट भी गुड़गुड़ा रहा था, होटल मे प्रवेश करते ही टायलेट तलाशा। लौटने पर दिमाग हल्का हुआ, हाथ मुंह धोकर हम एक टेबल पर जम गए। ट्रैफ़िक खुलने की प्रतीक्षा करती अन्य सवारियाँ भी थी। बीयर की बोतल खोले समय पास कर रहे थे। नेपाली चैनल बंद के दौरान घूम धड़ाके की खबरें बता रहा था। सफ़र में 3 चीजे आवश्यक होती हैं, पहला ठहरने का सुरक्षित स्थान, दूसरा आवागमन का साधन और तीसरा खाना। मुझे तीनों आवश्यक चीजें यहाँ पर दिखाई दे रही थी। इसलिए ठहरने में कोई समस्या नहीं थी। हमने भी खाने का आडर दे दिया, आराम से खाते हुए टाईम पास कर रहे थे। वेटर भी स्मार्ट था, खाने की आपूर्ती फ़टाफ़ट करता था। खाने के बाद घड़ी देखी तो 12 बजे हुए थे। धूप इतनी चमकीली थी कि लग रहा था 2-3 बज गए। मैं वहीं बैंच पर लेट गया और झपकी आ गई।
होटल का वेटर
हल्ला सुनकर आँख खुली, जाम खुल गया चलो चलो। हमने फ़टाफ़ट अपना सामान उठाया और गाड़ी की तरफ़ दौड़े, सड़क पर ट्रैफ़िक सरक रहा था, पाबला जी ने कार एक बस के सामने डाल दी और हम भी लाईन में शामिल हो गए। थोड़ी दूर चलने पर ट्रैफ़िक फ़िर रुक गया। पाबला जी ने कहा कि गाड़ी फ़िर होटल में लगा लेते हैं।अब सैकड़ों गाड़ियों के बीच से अपनी गाड़ी निकाल कर पुन: होटल में लगाना मुझे जंचा नहीं क्योंकि गाड़ी होटल में ले जाने बाद फ़िर हम सैकड़ों गाड़ियों के पीछे चले जाते। जुगेड़ी और नारायणगढ़ के बीच रामनगर एवं चितवन का जंगल है, यहीं पर माओवादियों ने सड़क जाम कर रखी थी। यह स्थान जगेड़ी से लगभग 10 किलोमीटर दूर था। मैने गाड़ी में ही सीट सीधी कर ली और सो गया। गर्मी बहुत ज्यादा थी। पाबला जी गाड़ी से नीचे उतर कर सवारियों से बात करने लगे।
जाम के दौरान मोबाईल पर चुटकुले पढते गिरीश भैया और पाबला जी
नेपाल में अभी तक मैने एक भी सरदार नहीं देखा था। पता नहीं क्यों नेपाल तक सरदारों की पहुंच नहीं थी। नेपाल के लोगों को सरदार की पहचान नहीं है, वे पाबला जी को बाबा जी कह कर संबोधित कर रहे थे। गत हिन्दू राष्ट्र होने के कारण दाढी वाले और पगड़ीधारी इन्हें साधू महाराज ही लगते होगें। इसलिए बाबाजी का संबोधन जारी था। शाम 4 बजे ट्रैफ़िक खुला। गाड़ियाँ सरकती हुई आगे बढने लगी। चितवन के जंगल में पहुचने पर गाड़ियों के टूटे हुए शीशे सड़क पर दिखाई दिए। माओवादियों ने हमारे एक दिन का सत्यानाश कर कर दिया और लुम्बिनी देखने की हमारी योजना की भ्रूण हत्या हो चुकी थी। जाम का असर हमें नारायणगढ़ के बाद भी दिखाई दिया।
नेपाल की तरफ़ से दिखती भारतीय सीमा (सोनौली)
शाम ढलने लगी, नारायणगढ़ के साथ पहाड़ियाँ पीछे छूट रही थी। हम सीमा की ओर निरंतर बढ़ रहे थे, सीमा से पहले एक रास्ता बुटबल होते हुए भैरवाह जाता है तथा दूसरा रास्ता और है जो सीधे ही भैरवाह जाता है, हम इसी रास्ते पर चल रहे थे। भैरवाह से पहले पुलिस ने गाड़ी रोकी, कांच फ़ूटने का कारण पूछा, गाड़ी के कागजात देखे तथा कहा कि सीट बेल्ट बांध लो। नेपाल में सीट बेल्ट बांधना अनिवार्य है। हम पूरे नेपाल का सफ़र करके आ चुके थे, किसी ने सीट बेल्ट बांधने के लिए नहीं टोका। जब सीमा 20 किलोमीटर बची है, तब पुलिस वाला सीट बेल्ट बांधने का कानून समझा रहा था। पाबला जी ने कहा कि बांध लो और मैने सीट बेल्ट बांध ली। जब हम भैरवाह सीमा पहुंचे तो एक व्यक्ति ने गाड़ी के कागजात देखे और उसमें एक पेपर फ़ाड़ कर रख लिया। सीमा पर एक स्थान पर नम्बर प्लेट जमा करवाई। भारतीय सीमा में प्रवेश करने पर सीमा सुरक्षा बल के जवान ने थोड़ी पूछताछ की और हम भारतीय सीमा में प्रवेश कर नौतनवा की ओर बढ गए।

नेपाल यात्रा आगे पढें…………

नगाड़ों का सफ़र

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संतागमन के साथ प्रकृति खिल उठती है, खेतों में रबी की फ़सल के बीच खड़े टेसू के वृक्ष फ़ूलों से लद जाते हैं, मानों प्रकृति धानी परिधान पहन कर टेसू के वन फ़ूलों से अपना श्रृंगार कर वसंत का स्वागत कर रही हो। टेसू के फ़ूलों से प्रकृति अपना श्रृंगार कर पूर्ण यौवन पर होती है तथा वातावरण में फ़ूलों की महक गमकते रहती है। पतझड़ का मौसम होने के कारण पहाड़ों पर टेसू के फ़ूल ऐसे दिखाई देते हैं जानो पहाड़ में आग लग गई हो। विरही नायिका के हृदय को भी अग्निदग्ध करने में यह ॠतू कोई कसर बाकी नहीं रखती। इसी समय होली का त्यौहार आता है और दूर कहीं नगाड़ों के बजने की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। साथ ही होली के फ़ाग गीत वातावरण को मादक बनाने में सहायक होते हैं।
टेसू (शुक चंचु) के फ़ूल
"अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी"फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है। 
कोकड़ा
शनिचरी बाजार में मेरी मुलाकात नगाड़ों की दुकान सजाए मन्नु लाल हठीले से होती है, नगाड़े बनाने एवं बेचने में इनकी उत्मार्ध बुधकुंवर भी हाथ बटाती दिखाई देती है। मन्नु लाल मिट्टी की हांडियों पर चमड़ा कसते हैं और बुधकुंवर चमड़े को विभिन्न रंगों से सजाती है। इनकी दुकान में 80 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक के नगाड़े की जोड़ियाँ विक्रय के लिए रखी हुई हैं। पूछने पर बताते हैं कि इनका पैतृक घर डोंगरगढ में है। गत 20 वर्षों से ये नगाड़ा बनाने एवं बेचने का काम करते हैं। होली के अवसर पर विशेषकर नगाड़ों की बिक्री होती है। बाकी दिनों में जूता चप्पल बेचने का काम करते हैं।
मन्नु लाल हठीले एवं बुधकुंवर
छत्तीसगढ़ अंचल में नगाड़े बनाने का काम विशेषत: चमड़े का व्यवसाय करने वाली मोची, मेहर और गाड़ा जातियाँ करती हैं। फ़ूलकुंवर कहती है कि पहले शादी के अवसर पर दफ़ड़ा एवं निशान बाजा बहुत बिकता था, परन्तु धुमाल बाजा आने के कारण इनकी बिक्री कम हो गई। दफ़ड़ा निशान बजाने वाले भी अब कम ही हैं। होली के बाद नगाड़ों की बिक्री पर विराम लग जाता है, महीनें में कोई एकाध जोड़ी नगाड़ा बिक्री होता है, वह भी कबूलना एवं बदना वाले लोग देवता-धामी मंदिर आदि में चढाने के लिए ले जाते हैं। कबुलना नगाड़े इन नगाड़ों से बड़े बनते हैं। 
नगाड़ों पर कलमकारी
नगाड़ा बनाने के लिए मिट्टी की हाँडी के साथ चमड़े का उपयोग होता है। मन्नु लाल बताते हैं कि नगाड़े की जोड़ी में दो सुर होते हैं, जिसे "गद"और "ठिन"कहते हैं। इसका निर्माण बैल या गाय के चमड़े से होता है। पशु के शीर्ष भाग का चमड़ा पतला होता है जिससे "ठिन"एवं पार्श्व भाग का चमड़ा मोटा होता है इससे "गद"नगाड़ा बनाया जाता है। हाँडी पर चमड़ा मढने के लिए भैंसे के चमड़े की रस्सियों उपयोग में लाई जाती हैं। तभी नगाड़ों से "गद"एवं "ठिन"की ध्वनि निकलती है। छोटा नगाड़ा बनाने के लिए बकरा-बकरी और अन्य जानवरों का चमड़ा उपयोग में लाया जाता है। इसे बजाने के लिए दो डंडियों का इस्तेमाल होता है जिन्हें स्थानीय बोली में "बठेना"कहा जाता है। नगाड़े की वास्तविक ध्वनि का आनंद गाय-बैल के चमड़े से मढे नगाड़े में ही आता है। 
नगाड़े बजा कर "गद"एवं "ठिन"ध्वनि का परिक्षण
मन्नुलाल कहते हैं कि होली के समय नगाड़े बेचकर 10 -15 हजार रुपए बचा लेते हैं। मंह्गाई बहुत बढ गई है, कच्चे माल का मूल्य भी आसमान छू रहा है। पहले एक ट्रक माल लेकर आते थे, वर्तमान में एक मेटाडोर ही नगाड़े लेकर आए हैं, किराया भी बहुत बढ गया। साथ ही रमन सरकार की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि राशन कार्ड में चावल, गेहूं, नमक, चना इत्यादि मिलने से गुजर-बसर अच्छे से चल रहा है। वरना जीवन भी बहुत कठिनाईयों से चलता था। इसी बीच फ़ूलकुंवर कहती है कि उनका स्मार्ट कार्ड नहीं बना है, आधार कार्ड बन गया है। इतना कहकर वह चूल्हे पर भोजन बनाने की तैयारी करने लगती है। 
नगाड़े संवारती बुध कुंवर
इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था। युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।
पतझड़ का मौसम खड़ुवा के जंगल में
वर्तमान में नगाड़ा मंदिरों में आरती के समय बजाया जाता है या फ़िर होली के अवसर पर बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में सामूहिक होलिका दहन स्थल पर फ़ाग गीतों के साथ इसका उपयोग किया जाता है। नगाड़ा बजता है तो गायक का उत्साहवर्धन होता है और सुर ताल बैठने पर फ़ाग गीत रात के सन्नाटे को चीरते हुए दूर तक सुनाई देते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ वसंत का रंग सारे वातावरण पर छा जाता है। होली समीप है और नगाड़ों की ध्वनि मन को मोह रही है। आस पास बजते नगाड़े का होली का स्वागत कर रहे हैं …… डम डम डम डम डमक डम डम…………

(डिस्क्लैमर - सभी चित्र एवं लेखन सामग्री लेखक की निजी संपत्ति हैं, इनका बिना अनुमति उपयोग करना कापीराईट के अधीन अपराध माना जाएगा। अनुमति के लिए shilpkarr@gmail.com पर सम्पर्क करें।)

खाटू नगरी वाले श्याम बाबा

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"हारे का सहारा है, बाबा खाटू श्याम हमारा है"का नारा लगाते हुए भक्त मुझे रेवाड़ी खैरथल मार्ग पर ग्राम सुबा सेहड़ी के समीप मिले। जीप पर डीजे लगा कर नर-नारियाँ हाथों में निशान (झंडा) लेकर नाचते-कूदते खाटू श्याम जी होली उत्सव मनाने जा रहे थे। खाटू श्याम जी के भक्तों की पूरी दुनिया में कोई कमी नहीं है। श्रद्धालू भक्त इन्हें सेठो का सेठ मानते हैं और भजनों द्वारा खाटू श्याम बाबा की सेवा करते हैं। राजस्थान हरियाणा में निवास करने वाले अधिकतम लोगों के कुल देवता के रुप में इनकी मान्यता है। जात-जड़ूले के साथ विशेष अवसरों पर श्याम बाबा के दर्शन करके आशीर्वाद लिया जाता है। कहा जाता है कि यहाँ से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। व्यक्ति की मनवांछित इच्छाएँ पूर्ण हो जाती है।
श्री खाटू श्याम बाबा
राजस्थान के सीकर की दांताराम गढ़ तहसील के अंतर्गत खाटू ग्राम पंचायत में खाटू वाले श्याम विराजते हैं। ग्लोब पर खाटू श्याम मंदिर 27021'48.31" N, 75024'07.17" E पर स्थित है। परिवारिक मान्यताओं का व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है इसलिए सपरिवार खाटू श्याम दर्शन करने मैं कई बार इस स्थान पर आ चुका हूँ। वर्तमान में खाटू में श्याम जी का लख्खी मेला चल रहा है। दूरस्थ प्रदेशों से लाखों यात्री बाबा के दर्शन करने आ रहे हैं। जिनमें पैदल यात्रियों की संख्या अधिक है। यह तीर्थ राजस्थान का प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता है। वैसे तो प्रतिदिन श्रद्धालू बाबा के दर्शन करने आते हैं परन्तु माह की एकादशी को इनके दर्शन का महत्व माना गया है। प्रतिवर्ष यहाँ पर फ़ाल्गुन मास की एकादशी को विशाल मेले का आयोजन होता है। इसमें भक्त बाबा के साथ होली खेलते हैं।
श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या मौरवी के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे। महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।
सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडाई कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यिद तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की ओर चलाया। 
हरसोली के समीप पदयात्री
तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
खाटू श्याम मुख्य मंडप
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया। एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रगट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिय गया। एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। 
मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था. मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई० में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिष्ठापित किया गया था. मूर्ति विग्रह दूर्लभ पाषाण से निर्मित है। वर्तमान में मंदिर का संचालन श्याम मदिर कमेटी ट्रस्ट करता है जिसके अध्यक्ष रुप सिंह चौहान के वंशज. मोहन सिंह (दास) चौहान, मंत्री प्रताप सिंह चौहान एवं खजांची श्याम सिंह चौहान हैं। 
इस वर्ष मंदिर कमेंटी एवं प्रशासन की तरफ़ से आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। जिसमें प्रसाद वितरण, मेला मार्गदर्शिका का प्रकाशन, आवा गमन, सफ़ाई, रोशनी, संचार, अग्नि शमन, चिकित्सा, क्लोज सर्किट कैमरे, जल, भोजन, अस्थाई शौचालय, डेकोरेशन, पार्किंग, रथ यात्रा की व्यवस्था की गई है। रींगस से 16 किलोमीटर तक सभी भक्तों को दर्शन करने के लिए पैदल चलना पड़ता है। इनके लिए 6 पंक्तियों में चलने की व्यवस्था की गई है। खाटू श्याम मंदिर में पाँच दिनों के लिए पाँच लाख लीटर दूध एवं ग्यारह हजार किलो संतरों की व्यवस्था की गई है। जिन्हे भक्तों को प्रसाद के रुप में वितरित किया जाएगा।
निशानधारी श्रद्धालु पदयात्रा मार्ग में
एकादशी को निकलने वाली रथयात्रा के लिए रथ बनाने का कार्य 93 वर्षीय खुदाबख्श करते हैं। ये 63 वर्षों से बाबा का रथ सजा रहे हैं। हिन्दू भक्तों के साथ मुसलमान भक्त भी भजन गा कर बाबा की सेवा कर रहे हैं। प्रसिद्ध गीतकार लियाकत अली खान 1990 से बाबा के भजन गा रहे हैं। एकादशी पर बाबा के श्रृंगार के लिए 61 तरह के 167 किलो फ़ूलों का इंतजाम किया गया है। कलकता से आए हुए 50 कारीगर बाबा जो सजाने के लिए 24 घंटे मुस्तैद हैं। ये 24 घंटों में 17 घंटे सजावट के कार्य में संलग्न रहते हैं। फ़ूलों के साथ सजावट में ड्राय फ़्रुट के साथ अन्य फ़लों का भी प्रयोग होता है।
बाबा का दर्शन करने के लिए भक्तों को 33 किलोमीटर का सफ़र तय करना होता है, जिसमें रींगस से खाटू के 16 किलोमीटर एवं खाटू ग्राम में बनाए गए जिक जैक 17 किलोमीटर तय करके ही भक्तों को बाबा के दर्शन होते हैं । मंदिर कमेंटी द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई है कि एक मिनट में 250 भक्त बाबा के दर्शन करते हैं। इस तरह दर्शन में 7-8 घंटे का समय लग जाता है। दर्शनार्थियों के लिए इन घटों में पेयजल एक बड़ी समस्या होती है। इसके लिए पानी के 20 लाख पाऊचों एवं 7 ट्रक पानी की बोतलों के साथ 8 स्थानों पर 3-3 हजार लीटर की टंकियों के साथ 20 पेयजल के टैंकरों की व्यवस्था की गई है। इन बीस लाख भक्तों को 4 हजार पुलिस कर्मी, 2 हजार स्काऊट एवं 5 हजार स्वयं सेवक संभालते हैं।
बुधवार को ग्यारस के दिन लगभग 10 लाख भक्तों द्वारा बाबा के दर्शन किए गए। छप्प्न भोग के साथ विशेष आरती का आयोजन किया गया। लाखों के भीड़ होने के बाद भी भक्तों के उत्साह में कोई भी कमी नहीं आती। पैरों में छाले पड़ने का दर्द बिसरा कर बाबा का जयकारा लगाते हुए भक्त दर्शनों के पश्चाता सारी पीड़ाएं भूल जाते हैं तथा दर्शनोपरांत खुशी-खुशी घर लौटते हैं। यह खाटू श्याम बाबा का चमत्कार ही है जो लाखों भक्तों को व्यवस्थित करते हैं और सभी की दुख पीड़ाएं हरते हैं। लाखों भक्तों की उमड़ती हुई भीड़ को देख कर लगता है कि इस दुनिया में ईश्वर का अस्तित्व भी है। विशाल जन समुद्र की आस्था आज भी ईश्वर के अस्तित्व पर टिकी हुई है। वरना लोग ईश्वर के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। यह देखो और जानो वाली बात है…… सुनी सुनाई पर क्या विश्वास करना।

होली के बहाने कुछ तेरी मेरी ……

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होली आई और गुजर गई …… होली कब हो ली पता ही न चला। सोचते रहे कि होली पर एक पोस्ट बनती है। विगत 5 वर्षों से होली पर ब्लॉग जगत के मित्रों की मौज लेने पोस्ट लिखते रहे। परन्तु इस वर्ष वह उत्साह मन में नहीं आया कि कोई पोस्ट का अवतरण हो जाए। ब्लॉग जगत भी गत वर्षों की अपेक्षा ठंडा ही रहा। कुछ ब्लॉग अपडेट ही मिलते रहे, जिसमें देशनामा की चमक कुछ अधिक दिखाई दी। ब्लॉग अडडा पे ठिया गाड़ने के बाद खुशदीप भाई के अपडेट निरंतर आ रहे हैं। बाकी के दैनिक यात्री साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पोस्ट अपडेट पर उतर आए हैं। वर्तमान दशा को देख कर लगता है कि ब्लॉग की यही गति जारी रहेगी। कोई बहुत बड़ा उफ़ान या तूफ़ान अब आने से रहा। लगता है कि जैसे कोई बालक यूवावस्था को उलांघ कर सीधे ही वृद्धावस्था में पहुंच गया हो।

पार्श्वालोकन किया जाए तो लगता है कि हमने भी कुछ अधिक खास नहीं किया। सिर्फ़ दो पुस्तकें ही इस अवधि की उपलब्धि रही। पढना कम हो गया पर लेखन निरंतर जारी है। ब्लॉग पोस्टों की दिन दहाड़े डकैती भी एक बड़ी समस्या बन कर सामने आ रही है। कई अखबारों में मेरी पोस्टें अन्य किसी नाम से प्रकाशित दिखाई दीं तो कहीं किसी अन्य की पोस्ट पर मेरे द्वारा खींचे गए चित्र चिपके दिखाई दिए। बौद्धिक सम्पदा पर डकैती एक गंभीर मामला है। इसलिए कुछ महीनों से मैने ब्लॉग पर पोस्ट डालना कम कर दिया। आज ही सुनीता शर्मा (शानू) के दोहों की डकैती की खबर फ़ेसबुक पर मिली। सुनीता शर्मा ने बोफ़ार्स तोप का मुहाना खोल रखा था और कह रही थी कि "जब तक लेखनी की सम्पादिका माफ़ी नहीं मांगेगी तब तक यह मुद्दा जारी रहेगा।"चोरी के बाद सीनाजोरी किसी को पसंद नहीं और पसंद भी नहीं होनी चाहिए।

मुझसे भी एक गलती हुई, मैने भी कई मोर्चे खोल दिए। तीन किताबों पर एक साथ काम शुरु कर दिया। इससे समस्या यह पैदा हो गई कि समय अधिक लग रहा है। एक किताब का काम 80% होने के बाद भी कई महीनों से लटका पड़ा है और अभी उसकी तरफ़ देखने की इच्छा नहीं हो रही। मुझे ग्राऊंड रिपोर्ट करने में अधिक मजा आता है। पहले किसी स्थान का निरीक्षण-परीक्षण करो तथा उसके बाद लिखो। इससे मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है और सूरज का ताप मेरी उर्जा में वृद्धि करता है। सौर उर्जा से जैविक बैटरी चार्ज हो जाती है। एक स्थान पर अधिक दिन नहीं टिकने की प्रवृत्ति चलने को मजबूर करती है। एक सप्ताह कहीं टिक गए तो लगता है कहीं और चला जाए। चलते चलते कहाँ तक चले जाएगें इसका पता नहीं।

पिछले साल 2 अक्टूबर से बाईक द्वारा गंगासागर से द्वारका तक जाने का कार्यक्रम लगभग पूर्णता की ओर था। इस यात्रा पर जाने के लिए सैकड़ों मित्र एक झटके में ही तैयार हो गए थे। अधिक लोगों को ले जा कर मैं अपने गले की फ़ांसी तो बनाना नहीं चाहता था। इसलिए सिर्फ़ 5 लोगों को सलेक्ट किया गया। जैसे ही तारीख समीप आई बाईक से ही रपटने के कारण हाथ फ़ैक्चर हो गया और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। उसके बाद इस यात्रा सुयोग बन ही नहीं पा रहा है। अब गर्मियों में आम चुनाव ताल ठोकने लग गया। सब चुनावों में व्यस्त हैं और हमारी बाईक यात्रा धरी की धरी रह गई। उम्मीद तो है कि किसी दिन धरी हुई बाईक चल पड़ेगी। हम फ़िर एक नई यात्रा पर चल पड़ेगें।

यात्रा ठंडी पड़ी तो व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन में लग गए। काफ़ी मेहनत के बाद व्यंग्य संग्रह प्रकाश में आ गया। जबकि इससे पूर्व मैं रामगढ़ की गाथा लिखना शुरु कर चुका था। रामगढ़ की गाथा से पहले व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो गया। प्रकाशन के बाद मेरी इच्छा थी कि इसका विमोचन साहित्य से जुड़े साथियों के बीच हो और दो-चार घंटे इस पर चर्चा हो। परन्तु कुछ मित्रों ने चक्रव्यूह में ऐसा फ़ांसा कि अगर अभिमन्यू होता तो गति को प्राप्त हो जाता। तब कहीं जाकर मुझे ज्ञात हुआ कि पुस्तक प्रकाशन से महत्वपूर्ण कार्य उसके विमोचन का होता है। जिसके पास मधुरस का छत्ता है वह स्थापित लेखक बन सकता है। उसे विमोचनकर्ताओं, लेखकों एवं समीक्षकों की कोई कमी नहीं।

होली बीत गई, होलियारों के फ़ाग कम ही सुनाई दिए। पहले कई जगहों से नगाड़ों की धमक सुनाई देती थी। इस वर्ष सुबह से ही सड़कें सूनी हो गई थी। कुछ मतवाले जरुर मध्य मार्ग में चित्त पड़े थे। वाहन विश्राम पर होने के कारण कोई खतरा भी नहीं था। रामदेव एन्ड कम्पनी के गुलाल ने अच्छा मार्केट पकड़ा। पर गुलाल भी खुश्बूदार और उत्तम क्वालिटी का था। लगाते ही ठंडक का अहसास होता था। अब जिसका नेटवर्क बन गया है वह मिट्टी भी बेचेगा तो बिक जाएगी। वातावरण में उष्णता बढ रही है। दो दिनों से दोपहर के वक्त पंखा चलाने के बाद भी पसीने आने लगे हैं। ऐसे में मरुप्रदेश के दौरे का कार्यक्रम बन रहा है देखते हैं गर्मी कितनी सहन होती है। ………… सभी मित्रों को होली की शुभकामनाएँ।

बासोड़ा: पर्यावरण जागरुकता का पर्व

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शीतला माता
किसी भी राज्य की पहचान उसकी भाषा, वेषभूषा एवं संस्कृति होती है। संस्कृति लोकपर्वों में दिखाई देती है। लोकपर्व संस्कृति का एक आयाम हैं। लोकपर्वों में अंतर्निहीत तत्व होते हैं, जिनके कारण लोकपर्व मनाए जाते हैं। संस्कृति की धारा अविरल बहती है परन्तु इसके पार्श्व में मनुष्य की दिमागी हलचल होती है। जो उसे उत्सवों की ओर अग्रसर करती है। लोकपर्वों में प्रमुख तत्व लोक होता है। विश्व में जहाँ भी मानवों की बस्ती है, उनके द्वारा मनाए जाते है। निर्धारित तिथि को बिना किसी शासकीय आदेश के सभी लोग सामुहिक रुप से इन पर्वों को मनाते हैं। मनुष्य रोजगार के उद्देश्य से भूगोल में किसी भी स्थान पर चला जाए, उसके साथ उसकी संस्कृति एवं लोकपर्व भी स्वत: चले आते हैं। इन पर्वों के माध्यम से वह अपनी संस्कृति से जुड़ा रहता है।

होली के बाद बसंत की चलाचली की वेला होती है और ग्रीष्म का प्रारंभ होता है। ॠतु परिवर्तन होने के कारण यह व्याधि के कीटाणुओं के संक्रमण का समय भी होता है। इस अवधि में चेचक का प्रकोप अधिक होता है, जिसे भारत में हम "माता"के नाम से जानते हैं। वर्तमान में यही समय विद्यार्थियों की परीक्षाओं का भी होता है, बड़ी संख्या में विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में इस संक्रमण से प्रभावित होते हैं। छोटी माता, बड़ी माता, सेंदरी माता इत्यादि नामों से इस व्याधि को जाना जाता है। इस व्याधि से बचने के लिए स्वचछता एवं आरोग्य की देवी शीतला माता की उपासना की जाती है। 

मान्यता है कि जब माता उग्र हो जाती है तो इसका प्रकोप होता है तथा शीतला माता की उग्रता को शांत करने के लिए शीतला विग्रह पर जल चढाने की परम्परा है। जिससे सप्ताह भर की अवधि में माता का प्रकोप शांत हो जाता है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है, परन्तु चेचक होने पर मरीज को आज भी अस्पताल नहीं ले जाया जाता। उसे हवा पानी से बचा कर रखा जाता है तथा शीतला माता में नित्य सुबह शाम जल चढा कर उसके प्रकोप को शांत किया जाता है। मान्यता है कि डॉक्टरी इलाज कराने पर माता का प्रकोप और बढ जाता है और वह क्रोधित हो जाती है जिससे मरीज की व्याधि बढ जाती है।

शीतला माता नीम के वृक्ष के नीचे स्थापित होती है, स्कंध पुराण में इन्हें गर्दभ वाहिनी दिखाया गया है, ये हाथों में कलश, सूप, मार्जनी (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इनका प्रतीकात्मक महत्व है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। मान्यता है कि गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। 

शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है शीतला माता के संग ज्वरासुर - ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। मान्यता अनुसार पूजा करने से शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और पूजक के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं

माता के प्रकोप से बचने के लिए होली के बाद "बासोड़ा"मनाया जाता है, जो मुख्यत: राजस्थान एवँ हरियाणा का लोकपर्व है। इसे होली के बाद शीतलाष्टमी तक के सप्ताह में मनाया जाता है। माता के मुख्यत: सप्ताह में सोमवार एवँ शुक्रवार 2 दिन माने जाते हैं। होली अगर सोमवार को होती है तो शुक्रवार को यह पर्व मना लिया जाता है, अगर होली शुक्रवार के बाद होती है तो सोमवार को यह पर्व मनाते हैं। कई स्थानों पर शीतला सप्तमी एवं अष्टमी को भी यह पर्व मनाया जाता है। 

इस दिन महिलाएं भोर में नए वस्त्र धारण कर कथा करती हैं तथा रात में बनाए गए व्यंजनों का भोग माता को लगाती हैं। ठंडा प्रसाद अर्पित कर मान्यतानुसार भोर में ही उसकी पूजा की जाती है। इस दिन राबड़ी, बाजरा की रोटी, मीठा भात, गुलगुला और अन्य पकवानो के साथ दही, मूंग की दाल, बाजरा की मोई, पात की आँख, बड़कुल्ला की जेल, भीगा हुआ मोठ-बाजरी इत्यादि के साथ कलश  में माता को जल चढाया जाता है। शीतला माता का भजन गाया जाता है। साथ ही कच्चे सूत के धागे की मेखला (करधन) बना कर बच्चों बड़ों को पहनाई जाती है। मटकी की पूजा की जाती है, इस दिन से ठंडा पानी पीना प्रारंभ हो जाता है। पूजा किया हुआ जल सभी आँखों में लगाते हैं। जिससे शीतलता के संग आखों की ज्योति सदा बनी रहे।

बासेड़ा मनाने के पीछे एक लोककथा भी प्रचलित है। एक गाँव में एक बुढिया रहती थी, जो बासेड़ा के दिन शीतला माई की पूजा करती एवं ठंडा भोजन खाती थी। गाँव में अन्य कोई भी शीतला माता की पूजा नहीं करता था, एक बार गाँव में आग लग गई, पूरा गाँव जल गया लेकिन उस बुढिया की झोंपड़ी नहीं जली। जब गाँव वालों ने उसकी झोपड़ी न जलने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वह शीतला माता की पूजा करती और ठंडा खाती है, इसलिए उसकी झोपड़ी नहीं जली। तब से सारे गाँव में डौंडी पिटवा दी गई कि बासेड़ा के दिन सभी को ठंडी रोटी खानी है और शीतला माता को धोक देनी है। इस घटना के बाद यह परम्परा लोकपर्व में परिवर्तित हो गई। 

बिहार, उत्तर प्रदेश में इसे बसियोरा के रुप में मनाया जाता है, गुजरात तथा अन्य प्रातों में शीतला अष्टमी को पूजा उपरांत ठंडा भोजन करने की परम्परा है। सिंध प्रांत के लोग भी इसे थदड़ी त्यौहार के रुप में मनाते हैं। इस दिन शीतला माता की पूजा करने की परंपरा है। परिवार की सुख शान्ति तथा बच्चों को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए माता शीतला की पूजा-अर्चना की जाती है। बासी पकवान खाने की परम्परा का निर्वाह करने के लिए महिलाएँ  धदड़ी मनाती हैं। महिलाएँ प्रात: उठकर शीतला माता की पूजा कर तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाती हैं। विभिन्न पकवानों में मिठी मानी, खटो्भात, खोराक, पकवान, नान खटाई, सतपुड़ा, चौथा, टिक्की प्रमुख रुप से बनाने की परम्परा है।

शीतला माता स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं, अगर हम अपने आस पास को साफ़ सुथरा रखेगें तो रोगों के कीटाणू व्यक्ति के सम्पर्क में आकर उसे रोगी नहीं बनाएगें। ज्यादातर बीमारियां खराब खाना खाने से होती हैं। रसोईघर की स्वच्छता बहुत जरूरी है। शीतला मां के हाथ में जल से भरा कलश होना, हमें जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए जागरूक बनाता है। आज स्वच्छ पानी का मिलना दुर्लभ हो गया है, क्योंकि हमने अपनी नदियों, सरोवरों और जलाशयों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि इनका पानी पीना तो क्या, उससे आचमन तक करने में पीछे हट जाते हैं। जल को कलश में सुरक्षित रखकर माता शीतला हमें जल-संरक्षण के लिए सचेत कर रही हैं। संसार के सबसे उपेक्षित पशु गधे की सवारी करके माता शीतला हमें पशु-पक्षियों की सुरक्षा के प्रति संकल्प लेने का आवाहन कर रही है। पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में पशु-पक्षियों की भी अहम भूमिका है। यह पर्व पर्यावरण के प्रति जागरूकता का पर्व है। इस तरह माना जाए तो बासेड़ा पर्यावरण से जुड़ा हुआ पर्व है। 

सुनसान भयावह सड़क पर भटकते ब्लॉगर

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नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
नेपाल से जैसे ही हमारी गाड़ी ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया वैसे ही हमारी सहचरी बोल पड़ी। बहुत सुकून मिला उसकी मधुर आवाज सुन कर। भले ही मैं उसे गाहे-बगाहे कोसता रहा परन्तु नेपाल में उसकी जरुरत हमें महसूस होते रही। जब वह गडढों भरे रास्ते पर ले जाती थी तो उसका मुंह तोड़ने का मन करता था क्योंकि समय खराब होता था गाड़ी हिचकोले लेते हुए चलती थी। फ़िर भी उस आभासी साथी का संग कभी भूला नहीं जा सकता। एक हिम्मत बनी रहती थी, किसी भी शहर में रास्ता भटकने नहीं देती थी। जैसे ही हम सोनौली गाँव से बाहर निकले तो मैने पाबला जी से कहा कि भारत में प्रवेश कर गए हैं और इसकी पहचान स्वरुप लोटाधारी एवं लोटाधारिणियाँ सड़क के किनारे बैठे/बैठी दिखाई दिए। भारत की यही पहचान है कि सुबह शाम रास्ते के किनारे शौच करते महिला पुरुष दिखाई दे जाएगें।
बढ़ते चलो बी.एस.पाबला जी 
नौतनवा बायपास से निकलने पर पाबला जी ने कहा कि अब क्या प्रोग्राम बनाया जाए गोरखपुर में रात्रि विश्राम करने के लिए। तो मैने कहा कि - गोरखपुर में नहीं रुकते, सीधे ही चलेगें और रात भर गाड़ी हांकेगें। जहाँ नींद आएगी वहीं गाड़ी खड़ी करके सो लेगें। जब जाग गए तो आगे बढ जाएगें। सबने सहमति जताई और हम आगे बढते रहे। जीपीएस के कारण रास्ता याद करने की जरुरत नहीं थी। हम इलाहाबाद होकर आगे बढना चाहते थे। पिछला रास्ता छोड़ना था। जीपीएस वाली बाई को इलाहाबाद जाने का बोल कर हम निश्चिंत हो गए। उसने गोरखपुर से लगभग 25 किलोमीटर पूर्व ही बायपास से गाड़ी मोड़ दी। लगभग नौ बजने को थे। इस मार्ग पर ट्रकों का परिवहन दिखाई दे रहा था। 

उस समय चाय की दरकार हुई। भोजन का मन नहीं था। हमने चाय के लिए एक होटल में गाड़ी रोकी तो उसने बताया कि दूध नहीं है। कारण पूछने पर पता चला कि कोई त्यौहार है, इस दिन सभी घरों में दूध की जरुरत पड़ती है इसलिए होटलों में दूध नही मिलता। आगे बढ कर एक होटल में फ़िर चाय पूछी तो उसने भी मना कर दिया। हम आगे बढे ही थे कि किसी गाड़ी के जोरों से ब्रेक मारने की आवाज आई। साथ ही गाड़ी के टायरों के घर्षण से जलने गंध। हम अपनी साईड में थे और सामने से एक ट्रक आ रहा था। पाबला जी ने साईड की और मैने ब्रेक लगा दिए, ब्रेक क्या लगाना, लगभग अपनी जगह पर खड़ा ही हो गया था। सामने पुलिया थी और सायकिल वाले दो बच्चे भी। वे भौंचक निगाहों से हमारी गाड़ी की तरफ़ देख रहे थे। ये सब कुछ सेकंडों में घट गया ब्रेक मारने वाली उसी रफ़तार से हमारे बगल से गुजर गई।
कृष्ण कुमार यादव, बी.एस.पाबला, महफूज अली, गिरीश पंकज
कुछ दे्र हम अपने आपको संयत करते रहे। अगर वह कार वाला गाड़ी नहीं संभाल पाता तो हमें टक्कर मारता या सीधे सामने से आ रहे ट्रक से टकराता तो उसके चिथड़े उड़ने तय थे। पता नहीं कैसे लोग अपनी जान खतरे में तो डालते हैं साथ ही दूसरे को परलोकवासी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हम आगे बढ गए, रास्ते में एक बड़ा ढाबा दिखाई दिया। जहाँ सफ़ेद कुर्ता पैजामाधारक टेबलों पर जमें  हुए थे। हमने भोजन के लिए यह जगह उपयुक्त समझी। खुले में बैठ गए, लेकिन होटल जितना बड़ा दिखाई, उतना ही घटिया था। रोटी चावल और भटे और आलू की सब्जी के अलावा कुछ था ही नहीं। जैसे तैसे हमने थोड़ा बहुत भोजन किया और आगे के सफ़र में चल पड़े। यह रास्ता अच्छा था, गाड़ी 50-60 की गति से मजे से चले जा रही थी।

जीपीस वाली बाई ने सज्जे मुड़ने कहा और सामने किसी नदी का बड़ा पुल था। पुल के पहले पुलिस की चौकी थी। एक कच्छाधारी पुलिस वाला लोटा लेकर जा रहा था तथा 3 पुलिस वाले डंडा लेकर पुल पर तैनात थे। 3 खटिया भी पड़ी थी मच्छरदानी लगाई हुई। पुल पार करते ही पुन: बड़े बड़े गड्ढे वाली सड़क मिली। हमने सोचा कि थोड़ी दूर होगी यह सड़क, फ़िर अच्छी सड़क आ जाएगी। यह रास्ता हमें बस्ती ले जा रहा था। बस्ती से अयोध्या फ़ैजाबाद होते हुए हमें इलाहाबाद पहुंचना था। यह सड़क तो बिलकुल बरबाद थी। घुप्प अंधेरे में अन्य कोई ट्रैफ़िक भी दिखाई नहीं दे रहा था। आधी रात के सन्नाटे में 4 लोग गाड़ी धकियाते चल रहे थे। 
कृष्ण कुमार यादव एवं ललित शर्मा सिरपुर के साथ 
एक स्थान पर तालाब के किनारे की सड़क ही गायब थी, उस पर नई मिट्टी डाली गई थी। पाबला जी ने गाड़ी रोक ली। अगर यहाँ गाड़ी फ़ंस जाती तो कोई निकालने वाला भी नहीं मिलता। मैने नीचे उतर कर देखा तो पहियों के निशान पर की मिट्टी सख्त थी। बस उन्ही निशान पर चलकर गाड़ी निकाली गई। गाड़ी निकल गई तो चैन की सांस आई। हम सड़क का ट्रेलर देख चुके थे। आगे बढे तो सड़क के किनारे मुसलमानों के घर, मदरसे इत्यादि दिखाई देने लगे। लगा कि हम मुसलमानों की घनी आबादी से निकल कर जा रहे हैं। सड़क दो कौड़ी और रात के एक बज रहे थे। अभी मुज्जफ़रनगर वाले मामले से हवा गर्म है और आपातकाल में इस इलाके में कोई पानी देने वाला भी नहीं मिलेगा। सियासत का क्या भरोसा? कब कौन शिकार हो जाए। सन्नाटा गहराता जा रहा था और रात रहस्यमयी होती जा रही थी। सड़क के आस पास की घास से निकल कर सियार सड़क पर दिखाई दे रहे थे, गाड़ी की रोशनी पड़ते ही भाग जाते थे। इस रास्ते पर 8 सियार दिखाई दिए।

मेरी आँखे लगातार सड़क पर लगी हुई थी। पाबला जी गाड़ी चलाते जा रहे थे। गिरीश भैया पिछली सीट पर शायद हमें कोसते हुए आराम कर रहे थे। क्योंकि उन्होने भी नहीं सोचा होगा कि इतने खतरनाक बियाबान रास्ते पर हमें चलना पड़ सकता है। शायद यह रास्ता बस्ती तक 40 किलोमीटर का रहा होगा। एक छोटे से गाँव में लगभग बहुत सारी लक्जरी बसें खड़ी दिखाई दी। पाबला जी ने कहा - ललित जी बसें देखिए। मैने कहा - यह कोई मुख्य स्टैंड होगा, जहाँ से चारों तरफ़ बसें जाती होगीं इसलिए इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दे रही हैं। हम आगे बढते गए और सड़क के किनारे खड़ी बसों की कतार खत्म ही नहीं हो रही थी। इतने अधिक खराब रास्ते पर लक्जरी बसें देख कर हम चौंक गए। लगभग 100 से अधिक बसें रही होगी। शायद इस इलाके में बड़ा ट्रांसपोर्ट माफ़िया होगा। तभी इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दी।
महफूज अली एवं गिरीश पंकज
बस्ती पहुंचने पर मैने आगे की सीट गिरीश भैया को सौंप दी तथा कुछ देर आराम करने के लिए पिछली सीट पर आ गया। पैर मोड़ कर नींद भांजने लग गया। मेरी आँख तब खुली जब हम अयोध्या से सरयू पर बने बड़े पुल से गुजर रहे थे। आगे फ़ैजाबाद हवाई अड्डे के किनारे से होते हुए हम आगे बढे। फ़ैजाबाद देख कर मुझे अमरेंद्र त्रिपाठी याद आए। यह उनका गृह जिला है। अगर समय होता तो अयोध्या का एक चक्कर फ़िर लगा लेते लेकिन हमें तो 17 तारीख तक किसी भी हालत में घर पहुंचना था। सुल्तानपुर 25 किलोमीटर था तब पाबला जी ने एक पैट्रोल पंप के किनारे गाड़ी को ब्रेक लगाया और बोले कि मैं सो रहा हूँ। जब थकान दूर हो जाएगी तो हम चल पड़ेगें। पैट्रोल पंप में एक चाय की दूकान थी और वहां कई तख्त पड़े थे। पहले तो चाय बनवाकर पी और मैं भी एक तख्त पर ढेर हो गया। गिरीश भैया पैदल घूम कर मौसम का आनंद ले रहे थे।

पाबला एक नींद पूरी करके उठे और मुझे जगाया। मौसम को देखते हुए उन्होने कहा कि डिक्की को ठकना चाहिए। आगे धूल भरा रास्ता है। वैसे भी रात भर चलने से पूरी गाड़ी में और बैग इत्यादि में धूल भर चुकी थी। गिरीश भैया की चादर को हमने डिक्की पर लपेट कर कांच बंद कर दिया। यह जुगाड़ हमें पहले ही कर लेना था। कैमरे को भी धूल से खतरा था, इसलिए मैने चित्र लेने के लिए बैग से निकाला ही नहीं। पर हमारा दिमाग तो काम नहीं किया पर सरदार का दिमाग काम आया। बात बन गई। यहां से हम आगे बढे। तभी ध्यान आया कि अपने प्रसिद्ध ब्लॉगर दम्पत्ति तो इलाहाबाद में ही रहते हैं और हमें अब नहाने और फ़्रेश होने की जरुरत थी। वैसे भी ब्लॉगर्स को मैं अपने पिछले जन्म का संबंधी ही मानता हूँ। जो इस जन्म में मुझे आभासी रुप से प्राप्त हुए। इस जन्म वाले सखा तो साथ पले बढे और खेले कूदे। पिछले जन्म के जो साथी छूट गए थे उन्हे भगवान ने इंटरनेट के माध्यम से मिलवा दिया। ये हुई न कोई बात।
महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, ललित शर्मा एवं  गिरीश पंकज
मैने 9 बजे मैसेज से कृष्णकुमार जी को इलाहाबाद आगमन की सूचना दी। उन्होने तुरंत मैसेज का जवाब देते हुए अपना पता भेज दिया और तत्काल मुझे फ़ोन लगाकर आने को कहा। मैने पाबला जी को बताया तो उन्होने सहचरी को जीपीओ पहुंचाने कह दिया। तभी महफ़ूज का फ़ोन भी आ गया। वह भी इलाहाबाद में था, पाबला जी ने मुझे बताया। चलो ये भी खूब रही, छोटा सा ब्लॉगर मिलन ही हो जाएगा। एक घंटे बाद हमने इलाहाबाद में प्रवेश किया। गंगा पार करने के बाद हमें एक नाका मिला। जहाँ टोल टैक्स लिया जा रहा था। छत्तीसगढ़ सरकार का पत्रकार का कार्ड दिखाने पर उन्होने कहा कि यहाँ नहीं चलेगा, ई यूपी है। चलो भई नहीं चलाओगे तो हमारा क्या जाएगा। घाटा तो यूपी सरकार का ही है। हम ब्लॉगर तो वैसे भी तुम्हारे यूपी की सड़कों को कोसते आ रहे हैं।

इलाहाबाद के ट्रैफ़िक सेंस की चर्चा क्या करुं? अगर नहीं करुंगा तो लोग कहेगें कि बताया नहीं। नाका से आगे बढने पर ट्रैफ़िक का जो हाल देखा, ऐसा कहीं देखने नहीं मिला। दांए, बांए, आगे, पीछे कोई कहीं से भी घुस जाता था। ऑटो वाले बीच सड़क से ही ऑटो मोड़ लेते थे। ट्रैफ़िक की हालत देख कर पाबला जी का दिमाग पर प्रेसर बढ रहा था और मेरा पैर पर। जी पी एस वाली बाई नगर के बीचों बीच लेकर चल रही थी। कृष्ण कुमार जी हम लोगों की लोकेशन ले रहे थे फ़ोन पर। लालबत्ती देख कर चौक पर हमारी गाड़ी रुकी। लेकिन बाकी ट्रैफ़िक नहीं रुका। हम हरी बत्ती का इंतजार करते रहे, चौक पर हमारी गाड़ी के बगल में ही सिपहिया खड़ा था। पाबला जी बोले - जब कोई नहीं रुक रहा तो हम क्यों रुकें। चलो बढा जाए, कह कर गाड़ी बढा दी।
ब्रिटिश क्राउन 
हम सिविल लाईन पहुंच गए। अब सिविल लाईन बहुत बड़ी है। किधर जाएं, जीपीएस वाली बाई जीपीओ, पोस्ट ऑफ़िस कमांड देने पर कई पोस्ट ऑफ़िस दिखाने लगी। जीपीओ की कमांड देने पर उसने हेड पोस्ट ऑफ़िस के पिछले दरवाजे पर पहुंचा दिया। वहाँ पर एक स्कूल था, लेकिन प्रवेश द्वार दिखाई नहीं दिया। हमने गाड़ी आगे बढाई तो गोल चक्कर पर चर्च दिखाई दिया। वहां से आगे बढने पर मुख्य प्रवेश द्वार दिखाई दे गया। द्वार पर पहरा लगा था, हमारी गाड़ी ने प्रवेश किया तो एक व्यक्ति हमें वहाँ मिल गए, जो हमें रिसीव करने के लिए खड़े थे। हमने गाड़ी खड़ी की तो धूल ही धूल भरी हुई थी समान में। तभी कृष्ण कुमार जी भी आ गए साथ आकांक्षा जी भी अलग कार में थे। नन्ही ब्लॉगर अक्षिता पाखी और अपूर्वा स्कूल से आए थे। हम गेस्ट रुम में पहुंच गए। पाबला जी सो गए और मैं स्नानाबाद चला गया।

खाना तैयार था, मैं पाबला जी को नींद से जगाना नहीं चाहता था, गिरीश भैया को खाने के लिए बुला लाया। हम दोनों ने भोजन किया और मैं भी एक नींद लेना चाहता था। यादव जी ने कहा था कि - जब आप लोग फ़्री हो जाएं तो मुझे फ़ोन कर लीजिएगा, मैं यहीं हूँ। मैं सोफ़े पर सो गया। पाबला जी का फ़ोन बजने लगा। 3 बार किसी का फ़ोन आया, वे गहरी नींद में थे। मैं भी निद्रा रानी के आगोश में जाने वाला था फ़ोन की घंटी बज गई। देखा तो महफ़ूज अली थे। आ जाओ भाई सीधे ही उपर। और वो पट्ठा भी सीधा ही उपर आ गया। :) थोड़ी देर में मैं नींद की खुमारी से बाहर आया। महफ़ूज ने पाबला जी को भी जगा दिया। पाबला जी ने स्नान करके भोजन किया। फ़िर मैने तीन बजे कृष्ण कुमार जी को फ़ोन लगाया। वे भी आ गए और ब्लॉगर्स की महफ़िल जम गई। मैने उन्हे सिरपुर सैलानी की नजर से पुस्तक भेंट की।
बी. एस. पाबला, महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, गिरीश पंकज एवं अन्य 
कृष्ण कुमार जी का जनसम्पर्क बहुत तगड़ा है, उन्होने तुरंत ही फ़ोन करके एक पत्रकार को बुला लिया। नेपाल ब्लॉगर सम्मान समारोह पर बात होने लगी। पत्रकार ने हम सबके विचार लिखे। फ़िर हम पोस्ट ऑफ़िस घूमने गए। जहाँ बहुत सारी चीजें मुझे देखने मिली। मेरी रुचि वहां मौजूद ब्रिटिश क्राऊन में अधिक थी। कृष्ण कुमार यादव जी ने बताया कि यह प्रस्तर निर्मित ब्रिटिश क्राऊन पोस्ट ऑफ़िस के कबाड़ में पड़ा हुआ था। उसे जोड़ कर उन्होने पोस्ट ऑफ़िस में रखवाया। इसका एक भाग टूट चुका है तथा लैटिन भाषा में लिखे हुए अक्षर टूटने के कारण लिखा हुआ पढा नहीं जा सका। कुछ पुरानी डाक टिकटें, हरकारों के हथियार इत्यादि यहां प्रदर्शित किए गए है। अब हमारा आगे बढने का समय हो रहा था।

हमने कुछ चित्र 1872 में निर्मित लेटर बॉक्स के साथ खिंचवाए और कृष्ण कुमार जी धन्यवाद देते हुए उनसे विदा ली। यह एक अविस्मरणीय भेंट थी, जो हमेशा याद रहेगी। अब हमें इलाहाबाद के ट्रैफ़िक से फ़िर जूझना था। चौराहे पर फ़िर वही घटना हुई। अबकि बार पाबला जी अड़ गए कि बिना हरी बत्ती हुए गाड़ी आगे नहीं बढाएगें। लाल बत्ती में भी पीछे की गाड़ियाँ वाले आगे बढने के लिए हार्न बजा रहे थे। बत्ती हरी होने पर आगे बढे। बाजार के बीचे से चलते हुए गाड़ी वाली आगे पीछे अगल-बगल से निकलने लगे। हमारी गति एकदम कम ही थी। एक सुजूकी वाले ने बाईक हमारी गाड़ी के सामने अड़ा दी और पाबला जी ने उसे हल्की की टक्कर दी। वह बाईक लेकर घूरते हुए आगे बढा। बाजार से निकल कर हम गंगानदी के पुल पर पहुंचे तो वहां खूंटे गड़े हुए मिले। मतलब इधर से लोहापुल से आगमन का रास्ता था, जाने वाला बंद था। गाड़ी वापस मोड़ी। जीपीएस ने फ़िर उसी रास्ते पर पहुंचा दिया।
तीन ब्लॉगर रास्ते में (कैम्प टी)
फ़िर हमें बंगाल के नम्बर की एक मारुति दिखाई दी। मैने कहा कि इसके पीछे पीछे चलते हैं ये भी पुल पार करेगा। इसके पीछे गाड़ी लगाने पर वह नदी के रास्ते पर गया और वहाँ से लौटती हुई सड़क से पुल पर चढने का रास्ता था। काफ़ी मशक्कत के बाद हमें पुल पार करने का रास्ता मिल गया। यहां पर जी पी एस वाली बाई फ़ेल हो गई। मुझे मालकिन ने फ़ोन करके कहा था कि घर में गंगाजल खत्म गया है। इसलिए गंगाजल लेकर आना। अब क्या बताएं गंगाजल की कहानी। एक बार इलाहाबाद में गंगा त्रिवेणी में स्नान करने के बाद 5 लीटर के डिब्बे में गंगाजल भर कर लाए थे। रायपुर पहुंचने पर देवी शंकर अय्यर मुझे स्टेशन लेने आए। गंगा जल उनकी बाईक की डिक्की में रख कर भूल गया और वो उनके घर पहुंच गया। फ़िर उनसे मांगा नहीं और न ही उन्होने मेरे घर पहुंचाया।

मैं बाजार में आस पास 5-10 लीटर का जरीकेन देखता रहा, लेकिन कहीं नहीं दिखाई दिया। गिरीश भैया कहने लगे कि डिब्बे में भरा हुआ गंगा जल बिकता है। कहीं दिख जाएगा तो ले लेगें। मैने तो आज तक डिब्बे में भरा गंगाजल बिकते नहीं देखा। हाँ डिब्बे जरुर बिकते हैं जिन पर गंगा जल लिखा रहता है। अगर कहीं डिब्बा मिल जाता तो नदी किनारे गाड़ी रोक कर भर लेते। गंगा की अथाह जल राशि से एक डिब्बा गंगा जल भी नसीब में नही था। हम पुल पार करके गंगा के किनारे भी पहुंचे, लेकिन गंगा जल लेकर किसमें जाएं। बिना गंगा जल लिए हमने इलाहाबाद छोड़ दिया और रींवा मार्ग पर चल पड़े। सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा था। घरों में रोशनी हो चुकी थी। हमें इलाहाबाद से रींवा मार्ग पर आने में 1 घंटे से अधिक समय लग गया। एक होटल में रोक कर चाय बनवाई और पान खाए, बंधवाए और आगे बढे।

नेपाल यात्रा आगे पढे……… जारी है। 

हैप्पी दीवाली: कुछ उनकी, कुछ अपनी

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दृश्य-1

कल दशहरा मना लिया गया, रावण अपने धाम को विदा हो गया। मौसम में दीवाली महक आ गई है। सुबह-सुबह ओस के साथ मौसम दीवालियाना लगने लगा है। चाय का कप लिए करंज के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले बैठा हूँ। इस एक महीने के त्यौहार में कितने काम रुक जाते हैं और कितने काम हो जाते हैं सोच रहा हूँ। रामगढ़ पर मेरी पुस्तक अधूरी है, उसे पूरा करने के लिए मुझे एक बार 2-4 दिनों के लिए रामगढ़ और जाना होगा। पिछले छ: महीने से योजना बना रहा हूँ। लेकिन कुछ न कुछ अड़ंगा आ जाता है। बरसात के चार महीने तो जंगल में घुसने लायक भी नहीं हैं। अब चुनाव का डंका बज चुका है। घर में रहकर ही राजनैतिक प्रतिस्पर्धा (लड़ाई) का आनंद लिया जाए। उसके बाद देखा जाएगा, कहीं जाना होगा तो। वैसे भी दीवाली का कितना काम पड़ा है।

दृश्य-2

बाईक स्टार्ट कर रहा हूँ, बाजार जाना है। तभी मालकिन पहुंच जाती है - दीवाली सिर पर आ गई है। रंगाई, पोताई, साफ़-सफ़ाई नहीं करवानी क्या? कोई चिंता ही नहीं है आपको। बाजार जा रहे हो तो रंग रोगन ले कर आना। परसों से काम शुरु हो जाना चाहिए।
अरे! हर साल रंग-रोगन तो टाटा-बिड़ला के यहाँ भी नहीं होता। पहले मकानों में चूना करना होता था तो लोग हर साल पुताई कर लेते थे। अब कितना मंहगा हो गया है, रंग-पेंट। दस हजार से कम का नहीं आएगा और पेंटरों का भी भाव बढा हुआ है। कहाँ ढूंढने जाऊंगा।
कहीं से लाईए ढूंढ कर। मुझे घर की रंगाई पुताई करवानी है। एक साल में घर की दीवारें कितनी गंदी हो जाती हैं। आपको नहीं दिखता क्या? मालकिन ने अपना आदेश सुना दिया और चली गई। मजबूरी युक्त हमारी मजदूरी शुरु हो गई।

दृश्य - 3

रंग-रोगन की दुकान में भारी भीड़। लोग सामान धक्का मुक्की कर सामान खरीद रहे हैं। सोच रहा हूँ कि ये भी मेरे जैसे ही होगें। इनकी मालकिनों ने भी इन्हें खदेड़ा होगा। दुकानदार की नजर मुझ पर पड़ती है - नमस्कार भैया! कैसे आना हुआ?
नमस्कार! यार मैं सोच रहा था कि तेरी बारात में जाने के बाद भूल गया ही गया। कम से कम बच्चों के बारे में पूछना चाहिए था कि कितने हुए। आज याद आया तो पता करने चला आया।
हे हे हे हे! आप भी मजाक करते हैं भैया। 10 साल बाद आपको याद आई।
अरे! मुझे रंग रोगन लेना है, इसलिए आया हूँ। इतना भी नहीं समझता। एशियन का इमल्शन पेंट लेना है। कलर कार्ड दिखा  मुझे। हॉल के लिए 2 रंग। बैडरुम के लिए 2 रंग, दूसरे बैडरुम में 2 रंग। भगवान के कमरे के लिए अलग लेना है। बाकी जो बच गया किचन में लगा लेगें। छत और बार्डर का रंग मिला कर भीतर के लिए लगभग 15 लीटर लग जाएगा तथा बाहर के लिए स्नोशेम कलर भिजवा दे। साथ में 1 छ: इंची ब्रस, 1 दो इंची, एमरी पेपर 80 नम्बर, व्हाईट सीमेंट 5 किलो भी साथ में देना।

दृश्य -3

भोजन जारी है- बोल आए रंग रोगन के लिए? मालकिन ने प्रश्न दागा। मेरे जवाब देते तक ही डोर बेल बजी। लड़का रंग रोगन का डिब्बा लिए सामने खड़ा था। मालकिन के चेहरे पर विजयी मुस्कान की चमक आ गई थी। रख दो भैया, उधर कोने में। साथ ही मेरी ओर मुखातिब होते बोली- कल सुबह सातपारा जाकर पेंटर का पता करके आओ। अब अधिक समय नहीं रह गया है। घर की साफ़ सफ़ाई भी करनी पड़ती है। रंग रोगन के बाद फ़र्श पर कितना कचरा फ़ैल जाता है। काम वाली बाई भी नौंटकी करने लगती है। आपका क्या है, जब देखो तब कम्पयूटर पर डटे रहते हो। थोड़ा भी ध्यान न दूं तो सारा काम ऐसे ही पड़ा रहे। आखिर सारा काम मुझे ही करना पड़ता है। मैं सिर झुकाए खाने में व्यस्त हूँ। आदेश सुनाई दे गया। अब कल की कल देखी जाएगी।

दृश्य-4

रात के 10 बज रहे हैं और मैं नेपाल यात्रा के पोस्ट लेखन से जूझ रहा हूँ। सब कुछ याद है कि कुछ भूल रहा हूँ। कीबोर्ड की खटर पटर जारी है। इसी बीच मालकिन का आगमन होता है - रविवार को बच्चों के कपड़े लेने जाना है। फ़िर सब छंटे छंटाए मिलेगें।
चले जाना भई, मैने कब रोका है। - मैने कीबोर्ड खटखटाते हुए कहा।
आप सारा दिन इसी में लगे रहते हो। कभी फ़ुरसत है यह सब सोचने की।
अरे! सारे ही सोचने लग जाएगें तो काम बिगड़ जाएगा। परिवार का काम यही है कि सब सोचें और कार्य पर विजय पाएं। अब मैं भी सोचने लग गया तो तुम्हारे लिए सोचने के लिए क्या बचेगा। इसलिए जिसका काम उसी को साजे, नही साजे तो डंडा बाजे।

दृश्य-5

कीबोर्ड विराम मोड में है और माऊस का काम चल रहा है। पोस्ट में फ़ोटो अपलोड हो रही हैं। दिमाग सोचनीय मोड में है। इसी घर में बचपन में देखते थे कि पितृपक्ष समाप्ति और नवरात्रि के पहले दिन से ही दीवाली के काम शुरु हो जाते थे। कामगारों की रेलम पेल। खेत से फ़सल आने की तैयारी। खलिहान की लिपाई शुरु हो जाती थी। उरला गाँव का बुधारु टेलर सिलाई मशीन लेकर बैठक की परछी में डेरा लगा लेता था। पंजाबी की दुकान से थान के थान कपड़े आते थे और सभी बच्चों के नाप के हिसाब से 2-2 जोड़ी कपड़ों की सिलाई शुरु हो जाती थी। स्कूल से आते ही पहला काम होता था कि आज टेलर ने किसके कपड़े सीले हैं और कल किसकी बारी है। कपड़े की दुकान घर पर ही खुल जाती थी। टेलर की भी मौज हो जाती थी, एक ही घर के कपड़े सीने में उसकी दीवाली मन जाती थी।

दृश्य-6

पेंटर काम पे लगे हुए हैं, उनकी सहायता के लिए उदय महाराज तैयार हैं, कभी इस डिब्बे की ब्रश उस डिब्बे में तो कभी इधर का पेंट उधर। हम कम्प्यूटर पर चिपके हुए हैं। कभी झांक कर देख लेते हैं क्या काम हो रहा है। आप यहाँ बैठे है और उदय उन्हें काम नहीं करने दे रहा है - तमतमाते हुए मालकिन का आगमन होता है।
उदयSSSSSSS! क्यों फ़ालतू परेशान कर रहा है। काम करने दे। चल तुझे एक काम देता हूँ, देख कितनी सारी तितलियाँ बाड़े में उड़ रही हैं। दो-चार सुंदर की फ़ोटो ही खींच ले। कम्प्यूटर का वाल पेपर बनाएगें। खुशी खुशी उदय कैमरा लेकर मंदिर की तरफ़ चला जाता है।
ये श्रुति भी न, जब काम होगा तभी स्कूल जाएगी। नहीं तो छुट्टी कर लेती है। काम के बोझ के नीचे कोई नहीं आता। सारा दिन रात खटना पड़ता है। तब कहीं जाकर दीपावली का काम निपटता है। अभी तो बिजली मिस्त्री को बुलाना है। 2 महीने से बाहर की ट्यूब लाईट खराब पड़ी है। उसे ठीक करवाना है। कोई ध्यान ही नहीं देता। - मालकिन बड़बड़ा रही थी।

दृश्य-7

पेंटर आधा अधूरा काम छोड़ कर गायब हो गए हैं ।मालिक साहब स्टूल पर चढे दीवाल पर रोगन चढा रहे हैं। अरे! इतना तो रंग मत टपकाओ। फ़र्श पर गिरने के बाद चिपक जाता है, साफ़ नहीं होता।
अब ब्रश से चूह जाता है तो मैं क्या करुं? कौन सा मैने पेंटिंग का कोर्स किया है। अब काम वाले नहीं आए तो मैं क्या करुं। ब्लेड से खुरच कर साफ़ कर दूंगा। दीवाली का काम है करना ही पड़ेगा। वरना कौन सुबह-शाम सिर पर बेलन बजवाएगा। हाँ नहीं तो। जरा ड्रम इधर खिसकाना तो।
ये छिपकिलियाँ बहुत परेशान करती हैं। जहाँ देखो वहीं घुसे रहती हैं। फ़ोटो के पीछे, कपड़ों के पीछे, आलमारी के पीछे। किताबों के सेल्फ़ में। मरती भी नहीं है। कोई इलाज नहीं है क्या इनका?
इलाज तो मुझे भी नहीं मालूम। फ़ेसबुक पर लिख कर मित्रों की राय ले लेता हूँ। अगर वे कोई समाधान बताएगें तो अमल में लाया जाएगा।
फ़ेसबुक पर लगाया हुआ महत्वपूर्ण स्टेटस, ही-ही बक-बक की बलि चढ जाता है। लेकिन मगरमच्छ की बहनों से पैदा हुई समस्या का हल नहीं मिलता।

दृश्य-8

पटाखे लाने हैं कि नहीं?
क्या करना है पटाखे लाकर। पिछले साल ही 2500 के लाए थे और किसी ने चलाए भी नहीं। अभी तक पड़े हैं घर में। फ़ालतू खर्च करने से क्या हासिल होगा।
दीवाली है, लोग पटाखे चलाते हैं। फ़िर आदि, हनी, श्रुति, श्रेया, उदय को तो पटाखे चलाने हैं। आप चलाओ चाहे न चलाओ।
रोज अखबार वाले और टीवी वाले कह रहे हैं कि पटाखे चलाने से ध्वनि प्रदूषण एवं वायू प्रदूषण होता है। साथ ही आचार संहिता लगने के कारण आज ही चुनाव आयोग का मेल-पत्र आया है कि रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक पटाखे चलाने पर प्रतिबंध है। अब पटाखे चलाने वालों को पुलिस पकड़ कर ले गई तो समझो मन गई दीवाली। - मैने टालने की कोशिश करते हुए कहा।
कोई पुलिस वाला पकड़ कर नहीं ले जाएगा। साल भर का त्यौहार है, इस दिन भी क्या पटाखे नहीं चलाने देगें। जाओ लेकर आओ और ज्यादा पटाखे नहीं लाना। सभी एक एक पैकेट ले आना।
बाजार से वापसी लौटते हुए उदय के पास एक बड़ी पालिथिन में भरे हुए पटाखे दिखाई देते हैं। इतने सारे क्यों ले आए? मैने तो थोड़े से लाने कहा था।
मुझसे थोड़ा सामान नहीं खरीदा जाता। साला ईज्जत का कचरा हो जाता है। तुम्हे थोड़ा सामान खरीदना हो तो किसी और से मंगवा लिए करो। मुझे मत कहे करो। हाँ ! साथ में लट्टूओं की झालर भी ला दी हैं 6 नग। मुझे मत कहना फ़िर बाजार जाने के लिए।

दृश्य- 9

आम के पत्तों को तोड़ कर नंगा करने पर तुले हैं नंदलाल और उसके लड़के। अरे! सारे पत्ते तुम ही तोड़ ले जाओगे तो दीवाली में हम कहाँ से लाएगें? मैने उन्हें झिड़कते हुए कहा।
दादी से पूछ कर तोड़ रहे हैं।
ले भई, जब दादी ने कह दिया तो पूरा पेड़ ही उखाड़ कर ले जाओ। कल तो कुछ मरदूद फ़ूल तोड़ने भी आएगें। - मैने कहा
तब तक मालकिन भी मैदान में आ जाती है- सब इन्हीं लोग ले जाते हैं दादी की सिफ़ारिश से, हमारे लिए तो बचते ही नहीं। आंगन लीपने के लिए गोबर भी नहीं आया है। श्रुति रंगोली का सारा सामान लेकर आ गई है। गोबर आएगा तो लीपा जाएगा, तब रंगोली बनेगी। इतवारी के लड़के को कब से खोवा (मावा) लाने कही हूँ, अभी तक लेकर नहीं आया है। कितना काम पड़ा है। कब खोवा लेकर आएगा तो कब गुलाब जामुन बनेगें।
मैने तो मना कर दिया था खोवे के लिए। आजकल खोवा खराब आ रहा है और मंहगा भी कितना है। 10 रुपए किलो में कोई कुत्ता भी नहीं पूछता था। आज 400 रुपए किलो हो गया है। वह भी शुद्ध होने की कोई गारंटी नहीं। नकली खोवा खाओ और अपनी तबियत खराब करो। 400 का खोवा और 1400 की दवाई।
आपकी चले तो कोई त्यौहार भी न मने। मैने कहा है उसे खोवा लाने के लिए। अगर तबियत खराब होगी तो मेरी होगी। देखा जाएगा, कम से कम दीवाली तो जी भर के मनाएं।

दृश्य -10

बरगद के पेड़ के नीचे कैमरा लिए बैठा हूँ, कुछ बगुले गाय की पीठ पर सवार हैं और लछमन झूला झूलने का मजा ले रहे हैं। बाड़े में चारों तरफ़ नजर दौड़ाता हूँ तो सूना सूना लगता है। लगता है जैसे काटने को दौड़ रहा हो। कभी इसी जगह पर त्यौहार पर 40-50 परिजन इकट्ठे होते थे। उस आनंद के कहने ही क्या थे। लक्ष्मी पूजन करने के बाद आशीर्वाद लेने-देने का क्रम चलता था और आतिशबाजी रात भर चलती थी। अब ऐसा कुछ नहीं है। कुछ बाहर चले गए, कुछ धरती में समा गए। कुछ अलग हो गए अपने - अपने कुटूंब कबीले को लेकर।
कैसा मजा रह गया है अब इन त्यौहारों का? सिर्फ़ परम्परा का निर्वहन हो रहा है। कल जब लोग पूछेगें कि दीवाली कैसी मनी? तो उन्हें बताने के लिए भी कुछ होना चाहिए। इन परिवार नियोजन वालों ने दुनिया का सत्यानाश कर दिया। वरना एक परिवार की दीवाली इतनी बड़ी होती थी, जितनी आज सारे मोहल्ले की होती है। 8-10 बच्चे होते तो उनकी उछल कूद और उत्साह से लगता कि आज कोई त्यौहार है। जब वे नए कपड़े पहन कर उत्साह से फ़ूलझड़ियाँ चलाते, आतिशबाजी करते। कोई किसी के पटाखे चुराकर जला देता तो किसी की पतलून के पांयचे में चकरी के पतंगे लग जाते। कितना आनंद होता उस दीवाली का।

क्या सोच रहे हो? चाय पीलो और मैने पानी गर्म कर दिया है, नहा धोकर तैयार हो जाओ। पूजा का मुहूर्त 6 बजे का है। आज तो कम से कम आलस छोड़ दो।

इस तरह संसार के रंगमंच पर न जाने कितने ही दृश्यों में पात्र को अभिनय करना पड़ता है और जीना पड़ता है इस दुनिया की वास्तविकता को। जो सपनों से तथा कल्पनाओं से कहीं अलहदा होती हैं। सभी मित्रों की दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

तुम बहुत याद आओगे …………

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जैसा नाम था वो वैसा ही अलबेला था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि वो अलबेला कवि हमारे बीच नहीं रहा। दो तीन पहले ही उसके अस्वस्थ होने की सूचना मिली थी और मैने ईश्वर से प्रार्थना की थी। मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं हुई और अलबेला कवि हमें छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल पड़ा। सृष्टि का नियम है जिसे आना है उसे जाना ही पड़ेगा। परन्तु इतनी कम उम्र में जाना होगा ये सोचा भी नहीं था। मेरा और अलबेला कवि का परिचय अधिक दिनों का नहीं, बस कुछ वर्षों का ही था। परन्तु जब भी हम मिले तो ये नहीं लगा कि किसी औपरे आदमी से मिल रहा हूँ। वही आत्मीयता और वही अपनापन। 
रायपुर प्रेस क्लब में - गिरीश पंकज, अनिल पुसदकर, बी एस पाबला, अलबेला खत्री, ललित शर्मा, राजकुमार ग्वालानी, शरद कोकास

राज भाटिया जी ने जब तिलियार (रोहतक हरियाणा) में ब्लॉगर मीट का आयोजन किया तो मैं पानीपत से भाई यौगेन्द्र मौद्गिल के साथ रोहतक पहुंचा। अगले दिन ब्लॉगर मीट में सम्मिलित होने अलबेला खत्री विशेष रुप से रोहतक पहुंचे। ब्लॉगर मीट के पश्चात राज भाटिया जी के घर में हमारी महफ़िल जमी। जिसमें नीरज जाट, केवल राम, अंतर सोहिल थे। यौगेन्द्र मौदगिल जी तो रात को पानीपत लौट गए थे। मुझे सर्द गर्म हो गई थी तो इन्होने मुझे अपने बैग से अजवाईन निकाल कर दी और गर्म पानी के साथ लेने कहा। सुबह उठने पर सर्दी गायब हो गई थी। रात भर कविताओं का दौर चलता रहा और मैने अपने ब्लॉग से छांट-छांट कर कविताएँ पढी। 4 बजे तक कवि गोष्ठी चलती रही। इधर नीरज जाट और केवल राम खर्राटे भरते रहे। 
रोहतक में - अलबेला खत्री, संगीता पुरी, ललित शर्मा, राजीव तनेजा योगेन्द्र मौद्गिल

एक ब्लॉग़र के रुप में अलबेला खत्री की अलग ही पहचान थी। शब्दों के खिलाड़ी थे वह। जब भी मंच पर पहुंचते रौनक जमा देते। मेरा जब भी मौज लेने का मन होता तो रात 12 बजे भी फ़ोन लगा लेता था और फ़िर ठहाके गुंजते थे बियाबान में भी। एक दिन मुझे फ़ोन लगा कर कहा कि पिथौरा के कवि सम्मेलन में आ रहा हूँ और वापसी में मुलाकात होगी। उस दिन मैं विशेष तौर पर सिर्फ़ उनसे मिलने के लिए रायपुर पहुंचा। पिथौरा से बस आयी और अम्बेडकर चौक से मैने अलबेला को अपने साथ लिया। एक सूटकेस था उसके हाथों में और सांस फ़ूली हुई थी। मतलब दो कदम भी चलना मुस्किल था। सूटकेस मैने उठा लिया और हम पैदल-पैदल चल कर संस्कृति विभाग में राहुल भैया के दफ़्तर में पहुंचे। उस दिन मुझे लगा कि इन्हें अस्थमा है। वहाँ से हम अनिल पुसदकर जी के आफ़िस पहुंचे और कुछ देर रुक कर अनिल भाई के साथ हम उन्हे स्टेशन छोड़ने गए। उन्हें हावड़ा अहमदाबाद की ट्रेन से सूरत जाना था।
रायगढ़ मे- अलबेला खत्री, ललित शर्मा, प्रताप फ़ौजदार, वी पी सिंह, यौगेन्द्र मौद्गिल

अक्टुबर माह में रायगढ़ स्थित नलवा प्लांट में आफ़िसर्स क्लब द्वारा कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। अलबेला भाई एवं प्रकाश यादव जी के विशेष आग्रह पर मुझे भी 19 अक्टुबर के इस कार्यक्रम में सम्मिलित होना था। सुबह एयरपोर्ट से प्रताप फ़ौजदार एवं यौगेन्द्र मौद्गिल जी को साथ लेकर बिलासपुर पहुंचे और वहाँ से प्रदीप चौबे जी को लेकर शाम होते तक रायगढ़ पहुंचे। इसी में सारा दिन चला गया। रायगढ़ पहुंचने पर कर्नल वीपी सिंग और अलबेला खत्री जी से भेंट हुई। मंच पर पहुंचने की तैयारी करते हुए अलबेला भाई ने हुक्का जैसा इन्हेलर निकाला और दवाई डाल कर दो-तीन सुट्टे मारे। अस्थमा का जोर दिखाई दे रहा था और उनकी सांस फ़ूल रही थी। थोड़ी देर में सांस स्थिर हुई तो हम मंच पर पहुचे। एतिहासिक कवि सम्मेलन था। उसके बाद हम साथ ही रायपुर लौटे।
रोहतक में सुबह की चाय - अलबेला खत्री और राजभाटिया जी

अलबेला खत्री का पूरा नाम टिकमचंद खत्री था। पर काव्य मंचों पर अलबेला खत्री के नाम से ही प्रसिद्धि मिली। रायगढ़ कवि सम्मेलन के बाद हमारी मुलाकात नहीं हुई। परन्तु फ़ोन पर चर्चा होते रहती थी। विगत एक माह से कोई फ़ोन पर कोई चर्चा नहीं हुई थी सिर्फ़ फ़ेसबुक की राम राम चल रही थी। अपडेट से पता चला था कि 8 अप्रेल को सोनीपत में कवि सम्मेलन है जिसमें सुनीता शानु भी उपस्थित रहेगी। इससे पहले ही उनकी अस्वस्थता का समाचार आ गया और 8 अप्रेल को कवि सम्मेलन में उपस्थित होने से पूर्व ही अलबेला भाई हमें छोड़ कर चले गए। कहा जाए तो उनके जाने से साहित्य जगत, ब्लॉग मंच एवं कवि सम्मेलन के मंच के साथ मेरी भी व्यक्तिगत क्षति हुई है। अब वो ठहाके सिर्फ़ यादों में ही रह गए। रह रह कर अभी गूंजते हैं मन की गहराईयों में। चलो संयोग हुआ तो फ़िर कभी मुलाकात होगी………

भारतीय रेल : चित्र प्रदर्शनी बिलासपुर

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चुनावी सरगर्मी के साथ शादियों का माहौल भी गर्म है। आम चुनाव और शादियों के मुहूर्त एक साथ आते हैं। जिससे दोनों ही प्रभावित होते हैं। 18 अप्रेल को एक शादी के सिलसिले में बिलासपुर जाना था तथा 19 को भी एक शादी में सम्मिलित होना था। इस तरह 2 दिनी बिलासपुर प्रवास तय हो गया। बिलासपुर रेल्वे जोन ने रेल्वे पर आधारित एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था। इस प्रदर्शनी को देखने की भी ललक थी। "कहाँ शुरु कहाँ खत्म"आत्मकथा के लेखक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जीको फ़ोन करने पर उन्होने कहा कि "बिलासपुर में आप मेरे मेहमान रहेगें।"मेरा इरादा था कि एक रात बिल्हा रुका जाए और अगली सुबह फ़िर बिलासपुर पहुंच जाऊंगा। पर द्वारिका प्रसाद जी के स्नेहिल आग्रह को टाल न सका। 
आत्मकथा लेखक श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी
प्रदर्शनी की अंतिम तिथि 18 तारीख बताई गई थी। मैने सोचा कि शाम 5 बजे तक प्रदर्शनी का समापन हो जाएगा तो देख नहीं पाऊंगा। इसलिए दोपहर को ही बिलासपुर के चल पड़ा। शाम को 4 बजे तक पहुंच कर भी एक घंटे का समय प्रदर्शनी के लिए मिल जाएगा। बिलासपुर पहुंचने पर द्वारिका प्रसाद जी स्टेशन पर ही मिल गए। हम प्रदर्शनी स्थल ढूंढते हुए डी आर एम ऑफ़िस के आगे तक पहुंच गए। आसमान में बादल होने के कारण गर्मी का असर कम ही था। एक तरह से मौसम सुहाना ही बन गया था। आखिर ढूंढते हुए प्रदर्शनी तक पहुंच गए। तो हॉल के सभी दरवाजे बंद थे। मैने सोचा कि समापन हो गया लगता है। परन्तु हॉल में कूलर चलने का संकेत मिलने पर समझ आ गया कि भीतर कोई तो है। आवाज देने पर दरवाजा खुल गया। दरवाजा खोलने वाले ने बताया कि प्रदर्शनी की तारीख बढ़ा कर 20 कर दी गई है।
भिलाई स्टील प्लांट का पावर इंजन
हॉल में थोड़ी सी ही जगह में फ़ोटो प्रदर्शनी लगाई गई थी। अगर सरसरी तौर भी निगाह डालें तो 5 मिनट में मामला रफ़ा-दफ़ा हो सकता था। लगभग 30 पुराने चित्र लगाए गए थे। जिनमें रेल्वे संचालन से संबंधित जानकारियाँ दिखाई गई थी। अगर पार्श्वालोकन करें तो 1887 में बंगाल नागपुर रेल्वे के अंतर्गत बिलासपुर में रेल लाइन बिछी और 1890 में बिलासपुर स्टेशन बना तथा 1891 में बिलासपुर जंक्शन। बिलासपुर में सुंदर रेल्वे कालोनी बसाई गई, जो शहर से काफ़ी दूर थी। प्रारंभिक काल में स्टीम इंजन चलते थे। प्रदर्शनी में स्टीम इंजन के चित्र भी दिखाई दिए, जो सवारी गाड़ी एवं माल गाड़ी को खींचते थे।
रायपुर धमतरी नैरोगेज लाईन का भाप इंजन
एक चित्र रायपुर धमतरी रेल लाईन के स्टीम इंजन का था। जिसे देखकर मेरी पुरानी यादें ताजा हो गई। मेरे निवास के एक कोने पर इस नेरोगेज लाईन का आउटर सिगनल है। गर्मी के दिनों में जब भी यह स्टीम इंजन इधर से गुजरता था तो ड्रायवर भाप का प्रेसर बढा कर धुंए के साथ कोयले भी उड़ाता था। इन जलते हुए कोयलों से सूखी घास में आग लग जाती थी। शाम को वक्त तो हमें पानी की बाल्टी भरकर तैयार रहना पड़ता था। घास में आग लगते ही बुझाया करते थे। अब भाप के इंजन की छुक छुक की आवाज एवं मधूर सीटी गुजरे हुए जमाने की बात हो गई। इस स्टीम के इंजन को डी आर एम ऑफ़िस रायपुर के बाहर ट्राफ़ी बना कर रखा गया है।
पुल निर्माण - हैट वाले इंजीनियर के साथ कुत्ता भी दिखाई दे रहा है।
रेल्वे के शुरुवाती दिनों में पहाड़ों को काटकर बोग्दे बनाकर एवं नदियों पर पुल बना कर यातायात सुगम किया गया। इस निर्माण से संबंधित चित्र भी प्रदर्शनी में रखे गए। उस समय सभी व्यक्ति सिर पर पगड़ी पहनते थे। इस चित्र में नंगे सिर कोई नहीं दिखाई दे रहा। इंजीनियर के निर्देशन में पुल के निर्माण का कार्य चल रहा है। जिसमें गार्डर लगाने के लिए रस्सी एवं चैन पुल्ली जैसा यंत्र भी दिखाई दे रहा है। इस चित्र में महत्वपूर्ण बात तो यह दिखाई दी कि इंजीनियर का पालतू कुत्ता भी उसके साथ पुल निर्माण की कार्यवाही तल्लीनता से देख रहा है। यह उनके पशुप्रेम को प्रकट करता है।
गोंदियां रेल्वे स्टेशन का हिन्दू टी स्टाल
1932 के एक चित्र से तत्कालीन सामाजिक स्थिति का पता चलता है। यह चित्र "हिन्दू-चाय"की दुकान का है। उस जमाने में मुस्लिम और हिन्दूओं में इतना अधिक विभाजन था कि हिन्दू मुसलमान के हाथों का भोजन ग्रहण नहीं करते थे। इसलिए रेल्वे ने हिन्दू टी स्टाल का अलग से निर्माण कराया। इनके लिए पानी के नलके भी अलग रहते थे। उस समय लम्बी दूरी का मुसाफ़िर पीने का पानी अपने साथ लेकर चलता था। ज्ञात हो कि जयपुर के महाराज सवाई मान सिंह द्वितीय 1902 में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में सम्मिलित होने इंग्लैंड गए थे तो चांदी के कलशों में लगभग 8000 लीटर गंगाजल अपने साथ ले गए थे।
शंटिग के लिए हाथी का सहारा
उस समय रेल्वे डिब्बों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए हाथियों का सहारा लेती थी। स्टीम इंजन को चलाने के लिए कोयले के भंडार के साथ पानी भी भरपूर व्यवस्था की जाती थी। इंजन में कोयले भरने के बाद उसमें पानी डाला जाता था, जिससे कि कोयला सूखने पर उसमें आग न लग जाए। इंजनों के दिशा परिवर्तन के लिए गोल घर बनाए जाते थे। जिस पर इंजन को चढाकार लेबर धक्का मार कर उसका दिशा परिवर्तन करते थे। यह व्यवस्था राजस्थान के फ़ूलेरा, जोधपुर जैसे स्टेशनों पर मैने देखी है।
बोग्दा
जनशक्ति के आवागमन के लिए रेल्वे उपयोगी साधन बन गया। आजादी के पहले रेल संचालन खंड-खंड में निजी कम्पनियों द्वारा किया जाता था। जिनके अलग-अलग प्रतीक चिन्ह हुआ करते थे। इस प्रदर्शनी में इन निजी कम्पनियों के प्रतीक चिन्हों को भी प्रमुखता से दर्शाया गया। रेल्वे के एकीकरण के पश्चात इसका प्रतीक चिन्ह बदल गया। इन प्रतीक चिन्हों को देखने के पश्चात पता चलता है कि किन कम्पनियों द्वारा रेल परिवहन का संचालन हो रहा था। 
निर्माण के दौरान क्रेन का उपयोग
ऐसी एक रेल मारवाड़ जंक्शन से उदयपुर के लिए खामली घाट होते हुए चला करती थी। जो जोधपुर रियासत की निजी रेल थी। इस रेल से मुझे यात्रा करने का सौभाग्य 1990 में मिला था। शायद अब यहाँ अमान परिवर्तन के कारण यह रेल नहीं चलती हो। रेल चित्र प्रदर्शनी से लौट कर हम श्री जगदीश होटल पहुंचे। कुछ देर विश्राम करने के पश्चात आशीर्वाद समारोह में सम्मिलित हुए। अगला दिन हमने मल्हार दर्शन के लिए तय किया। 

मल्हार : पातालेश्वर मंदिर

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ल्हार जाने के लिए सुबह का 6 बजे का वक्त तय हुआ। सुबह की शीतलता के साथ मल्हार दर्शन हो जाएगें वरना इस मौसम में सूरज दादा इतने भन्ना जाते हैं कि झुलसा कर ही छोड़ते हैं। द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी सपत्नी (माधुरी जी) के साथ मुकर्रर वक्त पर होटल पहुंच गए। मैं भी अपने औजार (कैमरा, टोपी, पानी की बोतल इत्यादि) लेकर तैयार था। हम मल्हार की ओर चल पड़े। 
बिलासपुर की सुबह
मल्हार नगर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में अक्षांक्ष 21 90 उत्तर तथा देशांतर 82 20 पूर्व में 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिलासपुर से रायगढ़ जाने वाली सड़क पर 18 किलोमिटर दूर मस्तूरी है। वहां से मल्हार, 14 कि. मी. दूर है। मस्तुरी पहुंचने पर मल्हार जाने वाले मार्ग पर एक बड़ा द्वार बना हुआ है और यहीं से तारकोल की इकहरी सड़क मल्हार की ओर जाती है।
मल्हार का मड फ़ोर्ट
पुरातात्विक दृष्टि से मल्हार महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कई एकड़ में फ़ैला हुआ मृदा भित्ति दुर्ग भी है। मल्हार के मृदा भित्ती दुर्ग  (मड फ़ोर्ट) सर्वप्रथम जिक्र जे. डी. बेगलर ने 1873-74 के अपने भ्रमण के दौरान किया। परन्तु उन्होने इस मड फ़ोर्ट में विशेष रुचि नहीं दिखाई। उन्होने इस शहर में मंदिरों के 2 खंडहरों का जिक्र किया।
पंचमुखी गणेश
के. डी. बाजपेयी मानते हैं कि पुराणों में वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने किया था। इसके कारण उनका नाम मलारि, मल्लाल प्रचलित हुआ। यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है। मल्हार से प्राप्त कलचुरीकालीन 1164 ईं के शिलालेख में इन नगर को मल्लाल पत्त्न कहा गया है। विशेष तौर पर इस नगर का प्रचार तब अधिक हुआ जब यहाँ से डिडनेश्वरी देवी की प्राचीन प्रतिमा चोरी हो गई थी। तब समाचार पत्रों में इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता रहा। मैने भी तभी इसका नाम सुना था, पर इस स्थान पर जाना कभी न हो सका था।
पातालेश्वर मंदिर का प्रवेश द्वार एवं स्थानक विष्णु लक्ष्मी :)
चर्चा के दौरान द्वारिका प्रसाद जी ने भी कहा था कि सारी उम्र बिलासपुर में गुजारने के बाद भी वे मल्हार नहीं जा सके। आज आपके साथ जाना हो जाएगा। अब हम मल्हार से अनजान तीन लोग इस नगर की ओर बढ रहे थे। धीमी रफ़्तार से चलते हुए हम लगभग 7 बजे मल्हार पहुंच गए। सूर्य देवता भी अपना हल्का प्रभाव दिखाने लगे थे। मल्हार में प्रवेश करते समय छत्तीसगढ़ पर्यटन के सूचना पट पर पातालेश्वर मंदिर का रास्ता दिखाया गया था। हम भी इसी मंदिर में जाकर रुके। 
नदी देवियाँ एवं अनुचर
मंदिर परिसर की सुरक्षा चार दिवारी बना कर की गई है। लोहे का गेट खुला मिला और हम प्रवेश कर गए। यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है, गेट से प्रवेश करते समय 18 अप्रेल विश्व धरोहर दिवस का बैनर टंगा हुआ दिखाई दिया। वैसे तो उदयपुर वाले श्री कृष्ण जुगनु जी ने फ़ेसबुक पर पूछ ही लिया था कि आज आप क्या करने वाले हैं। हमने उन्हें बताया कि मल्हार जाने वाले हैं।
जय भोले शंकर-कांटा गड़े न कंकर
द्वार से प्रवेश करने पर बांई ओर टीन के छत से ढकी मंदिर की विशाल संरचना दिखाई दे रही थी। इसे देखते ही अपुन समझ गए कि यही पातालेश्वर मंदिर है। पालेश्वर मंदिर का मंडप अधिष्ठान ऊंचा है पर गर्भ गृह में जाने के लिए 5-6 पैड़ियाँ उतरना पड़ता है अर्थात गर्भगृह धरातल पर ही है। द्वार के बांई तरफ़ कच्छप वाहिनी यमुना एवं दांई तरफ़ मकर वाहिनी गंगा देवी की स्थानक मुद्रा में आदमकद प्रतिमा है। इनके साथ ही शिव के अन्य अनुचर भी स्थापित हैं। 
गौमुखी पातालेश्वर शिव
गर्भ गृह में जाने के लिए पैड़ियों का प्रयोग होने के कारण इस मंदिर का नाम पातालेश्वर प्रचलन में आया तथा शिवलिंग का गौमुखी होना भी इसे विशेष मान्यता देता है। जब हम लोग मंदिर में पहुंचे तो कुछ लोग पूजा पाठ कर रहे थे। माधुरी जी ध्यान करती हैं, उन्होने शिवलिंग के दर्शन करने के पश्चात बताया कि इस स्थान पर उर्जा का स्तर काफ़ी ऊंचा है।
ई हमार कौनो जनम के भाई बंधू हैं मूंछधारी
द्वार पर स्थापित प्रतिमाओं को देखने के बाद मन प्रसन्न हो गया। शिल्पकार ने इन्हें सुडौल बनाया। प्रतिमा निहारने पर कहीं पर भी निगाहें अटकती नहीं हैं। कहा जाए तो सब कुछ "सूत"में निर्मित किया है सूत्रधार ने। इस मंदिर का निर्माण कलचुरी राजा पृथ्वीदेव के पुत्र जाजल्लदेव द्वितीय के समय में सोमराज नामक ब्राह्मण ने कराया, जिसे केदारेश्वर नाम दिया जो वर्तमान में पातालेश्वर प्रसिद्ध है। 
राम जी की सेना चली - हस्तिदल
मंदिर की भित्तियों में हस्ति दल, सिंह संघाट प्रतिमा, गणेश, पुष्प वल्लरियों का सुंदर अंकन है। मंदिर की दाईं भित्ति पर मूंछधारी सिंह का अंकन भी मनोहारी दिखाई देता है। मंदिर के सामने ऊंचे अधिष्ठान पर नंदी सजग मुद्रा में विराजमान हैं। कान खड़े हुए और आँखे शिव की ओर एक टक लगी हुई। जैसे आदेश होते ही त्वरित कार्यवाही करने को तत्पर दिखाई देते हैं।
नंदी बाबा तैयार हैं कार्यवाही के लिए- आदेश की प्रतीक्षा
मंदिर के समक्ष ही हनुमान जी की आदमकद प्रतिमा विराजमान है। स्थानक मुद्रा में हनुमान जी ने एक स्त्री पर बांया पैर धर रखा है। एक हाथ सिर पर है तथा दूसरा हाथ अभय मुद्रा में दिखाई देता है। यह प्रतिमा किस पौराणिक आख्यान पर आधारित है, स्मरण नहीं हो पा रहा। मंदिर के आस पास कई आमलक बिखरे पड़े हैं।  इसके साथ ही मडफ़ोर्ट की परिखा के तरफ़ पंचमुखी गणेश की आदमकद प्रतिमा भी रखी हुई है। 
भग्न मंदिरों के खंडहर
मंदिर परिसर में उत्खनन में प्राप्त कई मंदिरों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं इससे जाहिर होता है कि इस स्थान  पर मंदिरों का समूह रहा होगा। मंदिर के सामने ही कई जैन प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। सामने ही संग्रहालय भी बना हुआ है। परन्तु इस संग्रहालय में इतनी जगह नहीं है कि सभी प्रतिमाएं रखी जा सकें। संग्रहालय में मौजूद प्रतिमाओं का अवलोकन करने लिए हमने संग्रहालय में प्रवेश किया। 

मल्हार : प्राचीन प्रतिमाएँ

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ल्हार पर प्राण चड्ढा जी से चर्चा हो रही थी। उन्होनें बताया कि 25-30 वर्ष पूर्व मल्हार में प्राचीन मूतियाँ इतनी अधिक बिखरी हुई थी कि महाशिवरात्रि के मेले में आने वाले गाड़ीवान मूर्तियों का चूल्हा बना कर खाना बनाते थे। इसके वे साक्षी हैं। मल्हार पुरा सम्पदा से भरपूर नगर था। वर्तमान मल्हार गाँव मल्लारपत्तन नगर के अवशेषों पर बसा हुआ है। हर घर में किसी न किसी पुराने पत्थर या प्रतिमावशेष का उपयोग दैनिक कार्यों में होता है। कलचुरियों के समय यह नगर अपनी प्रसिद्धी की बुलंदी पर था। पर न जाने ऐसा क्या हुआ जो इसे पतनोन्मुख होना पड़ा। यही सोचते हुए मैं संग्रहालय (संग्रहालय तो नहीं कहना चाहिए, वरन एक बड़ा कमरा जरुर है, जहाँ बेतरतीब प्रतिमाएं पड़ी हैं) की ओर बढा।
संग्रहालय
आस-पास कुछ लोग नल के पानी से स्नान कर रहे थे। प्रांगण में प्रतिमाएं बिखरी हुई हैं। संग्रहालय के द्वार पर चौकीदार से भेंट हुई, हमें देख कर चौकीदार ने भवन के द्वार उन्मुक्त किए एवं भीतर के हॉल में रोशनी की। सिर्फ़ एक ही ट्यूब लाईट का प्रकाश दिखाई दिया। अन्य ट्यूब लाईटें झपकी भी नहीं, मौन रह गई। भगवान जाने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी शासन द्वारा भरपूर बजट मिलने के बाद भी प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ती करने में भी क्यों कोताही बरतते हैं। मद्धम मद्धम रोशनी में प्रतिमाओं का अवलोकन प्रारंभ हुआ। अवलोकन करने के लिए एक सिरा ही पकड़ना ठीक था।
शेष नारायण
दरवाजे के सामने ही शेषशायी विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा दिखाई देती है। अपने आयुधों के साथ बांया पैर दाएं जंघा पर रखा हुआ है, नाभी से निकले हुए कमल पर ब्रह्मा विराजे हैं। चरणों की तरफ़ लक्ष्मी विराजमान हैं। प्रतिमा थोड़ी घिसी हुई है, आँखे और नाक स्पष्ट नहीं है। 
कुबेर
आगे बढने पर कुबेर की एक प्रतिमा दिखाई देते हैं। किरीट मुकुटधारी कुबेर ने दांए हाथ में गोला(पृथ्वी) थाम रखा है और बांए हाथ में धन की थैली। अगर धन न हो तो फ़िर कैसा कुबेर? इसलिए शिल्पकार कुबेर का पेट गणेश सदृश्य बड़ा बनाते हैं और हाथ में धन की थैली थमाते हैं।
वीरभद्र
वीरभद्र की सुंदर प्रतिमा भी संग्रह में रखी हुई है। शिवालयों में वीरभ्रद की प्रतिमा भी अनिवार्य रुप से बनाई जाती थी। वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया. देवसंहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से 'वीरभद्र'नामक गण उत्पन्न किया. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया। 
विष्णु
पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र'नामक गण उत्पन्न किया। वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया।
स्कंद माता
स्कंधमाता की भी स्थानक प्रतिमा हैं। पौराणिक गाथाओं में भगवान शंकर के एक पुत्र कार्तिकेय भी हैं, वे भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय'नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
शिव पार्वती
एक प्रतिमा नंदी आरुढ शिव पार्वती की है, जिसमें नंदी वेग से आगे बढे जा रहे हैं, उनके दोनो अगले पैर हवा में दिखाए गए हैं। नंदी की लगाम पार्वती ने अपने हाथ से थाम रखी है। इस प्रतिमा में शिव का चेहरा भग्न है, किसी ने प्रतिमा को खंडित कर दिया है। 
विष्णू 
इसके साथ ही एक अद्भुत प्रतिमा भी इस संग्रह में है। जिसे अध्येता विष्णु की प्रतिमा बताते हैं। जिसके एक हाथ से सीधी तलवार दबाई हुई है, शीष पर टोपी और कानों में कुंडल के शीष के बगल में चक्र दिखाई देता है। पोषाक बख्तरबंद जैसी है तथा पैरों में लम्बे जूते हैं।  इस प्रतिमा के नाम निर्धारण पर गत संगोष्ठी में विवाद की स्थिति उत्पन्न थी, कुछ इसे विष्णु प्रतिमा मानते हैं , कुछ नहीं। यह प्रतिमा किसी युनानी योद्धा जैसे दिखाई देती है। 
संभवत: तीर्थंकर आदिनाथ
संग्रहालय में अन्य भी बहुत सारी प्रतिमाएं है, जिनमें जैन-बौद्ध प्रतिमाएं भी दिखाई देती हैं। हमें अन्य स्थानों का भी भ्रमण करना था इसलिए यहाँ से जल्दी ही निकलना चाहते थे। पातालेश्वर मंदिर के दर्शनोपरांत हम डिडनेश्वरी मंदिर की ओर चल पड़े।

आगे पढें…… जारी है।

मल्हार: आस्था का केन्द्र डिड़नेश्वरी माई

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डिडनेश्वरी माई का प्रसिद्ध मंदिर मल्हार ग्राम की पुर्व दिशा में लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर है। इसके दांए तरफ़ एक बड़ा तालाब है तथा मंदिर के सामने भी एक पक्का तालब है। जिसमें ग्रामीण निस्तारी करते हैं। मंदिर के द्वार पर पहुंचने पर एक सिपाही खड़ा दिखाई दिया। शायद इसे मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था में तैनात किया गया है। मंदिर के गर्भ गृह को लोहे के दरवाजों से बंद किया गया है, दर्शनार्थी बाहर से ही दर्शन करके जा रहे थे। मंदिर में नवीन निर्माण कार्य प्रारंभ है। गर्भ गृह के सामने बड़े मंडप का निर्माण हो रहा है।
डिड़नेश्वरी मंदिर परिसर
मल्हार में सागर विश्वविद्यालय द्वारा उत्खनन कार्य करवाया गया। विद्वानों ने इस नगर को ईसा पूर्व 4 भी शताब्दी का माना है। यहाँ ईसा पूर्व 2 शताब्दी की विष्णु प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे आंकलन किया जा सकता है कि पूर्ववर्ती राजा वैष्णव धर्मानुयायी होगें। इसके पश्चात शैवों धर्म का प्रचलन हुआ होगा। मौर्यकाल से लेकर 13-14 वीं शताब्दी तक यह नगर उन्नत एवं विकसित रहा होगा। शैवों के साथ तंत्र उपासना भी प्रारंभ हुई। शाक्तों का भी मल्हार में प्रभाव रहा है। स्कंद माता, दूर्गा, पार्वती, महिषासुर मर्दनी, लक्ष्मी, गौरी, कंकाली, तारादेवी इत्यादि देवियों की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। परन्तु डिड़नेश्वरी देवी की काले ग्रेनाईट की अद्भुत प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। 
निर्माणाधीन मंडप
डिड़नेश्वरी नाम के विषय में राहुल सिंहकहते हैं -  "डिड़िन दाई से तो जैसे पूरे मल्हार की धर्म-भावना अनुप्राणित हुई है। काले चमकदार पत्थर से बनी देवी। डिड़वा यानि अविवाहित वयस्क पुरुष और डिड़िन अर्थात्‌ कुंवारी लड़की। माना जाता है कि मल्हार के शैव क्षेत्र में डिडिनेश्वरी शक्ति अथवा पार्वती का रूप है, जब वे गौरी थीं, शिव-वर पाने को आराधनारत थीं। डिड़िन दाई का मंदिर पूरे मल्हार और आसपास के जन-जन की आस्था का केन्द्र है।"डिड़नेश्वरी देवी प्रतिमा को कई बार चोरी करने का प्रयास किया पर चोर एक बार कामयाब हो गए। इस दौरान अखबारों में इस प्रतिमा चोरी के समाचार छपने से यह प्रतिमा विश्व प्रसिद्ध हो गई। फ़िर अचानक यह प्रतिमा बरामद भी हो गई। 
डिड़नेश्वरी माई
मान्यता है कि यह कलचुरियों की कुलदेवी है, देवार गीतों में इसे राजा वेणू की इष्ट देवी भी बताया गया है। डिड़नेश्वरी की प्रतिमा को कलचुरी काल ग्याहरवी सदी की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति माना गया है। काले ग्रेनाईट की यह प्रतिमा 4 फ़ुट ऊंची है। आभामंडल के साथ छत्र को महीनता से लघु घंटिकाओं द्वारा अलंकृत किया गया है। मुक्ताहार, भुजबंध, कर्णफ़ूल, कमरबंध, पायल इत्यादि अलंकरण प्रतिमा को गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिमा के फ़लक पर नौ देवियाँ उत्कीर्ण हैं, कहते हैं जब देव गण युद्ध में असुरों से हार गए तो वे पार्वती की शरण में आए। पार्वती ने पद्मासन में बैठ कर ध्यान किया जिससे नौ देवियों ने प्रकट होकर असुरों का संहार किया।
राजपुरुष: डिड़नेश्वरी मंदिर मल्हार
प्राचीन मंदिर के अधिष्ठान पर नवीन निर्माण किया गया है। मल्हार में मल्लाहों (निषाद) की अच्छी आबादी है। वे डिड़नेश्वरी को अपनी आराध्य देवी मानते हैं। डिड़नेश्वरी माई की कर बद्ध ध्यानावस्थित प्रतिमा मोहित करने वाली है। जिस शिल्पकार ने इसका निर्माण किया होगा उसे नमन है। ऐसे खुबसूरत प्रतिमा मैने आज तक देखी नहीं। गर्भगृह के द्वार के बांई तरफ़ एक राजपुरुष की प्रतिमा भी स्थापित है। अब यह प्रतिमा किस राजा की है यह बताना कठिन है। हमने मंदिर की एक परिक्रमा लगा कर पुजारी से प्रसाद ग्रहण किया और मल्हार नगरी भ्रमण करने आगे चल पड़े।


मल्हार : जैन प्रतिमाएँ

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रात होटल में सतीश जायसवालजी से भेंट हुई थी, जब उन्हें हमारी मल्हार यात्रा का पता चला तो उन्होंने सहयोग की दृष्टि से मल्हार निवासी गुलाब सिंह को फ़ोन लगाया, वे घर पर नहीं मिले। फ़िर उन्होने उनका नम्बर द्वारिका प्रसाद जी को दे दिया। जिससे हम मल्हार पहुंचने के बाद उनसे सम्पर्क कर सकें। मल्हार पहुंचने पर उनका नम्बर "नाट रिचेबल"कहने लगा। मल्हार भ्रमण कराने के लिए अन्य सुत्र नहीं मिला तो हम खुदमुख्त्यार हो गए। डिड़नेश्वरी देवी दर्शन के पश्चात हमें पता चला कि बस्ती के भीतर कोई नंद महल नामक मंदिर है। हमने कार बाजार में ही वृक्ष के नीचे खड़ी कर दी और रास्ता पूछते हुए चल पड़े।
प्राचीन भवनों के पत्थरों का उपयोग
कदमों से चल  कर किसी बस्ती को नापना मुझे अच्छा  लगता है। मल्हार का बाजार छोटा सा है, पर आवश्यकता सभी वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध है। बड़ी खरीददारी के लिए इन्हें बिलासपुर जाना पड़ता है। नंद महल के रुप में मैने सोचा था कि कोई बड़ा भवन होगा। जिसमें कोई मंदिर होगा। पैदल चलते हुए बस्ती का निरीक्षण भी हो रहा था। प्राचीन नगरी के भग्नावशेषों पर गांव बसने के कारण पुराने घरों की नींव और दीवालों में पुरा सामग्री प्रयोग की हुई मिल जाती है। जैसे सिरपुर में मकान बनाने के लिए कहीं बाहर से पत्थर लाने की जरुरत नहीं होती थी। किसी भी स्थान को खोदने से प्राचीन दीवाल आदि मिल जाती थी उसके पत्थर ही भवन निर्माण के लिए पर्याप्त होते थे।
वैवाहिक जानकारी
गाँव में घरों की दीवाले होली-दीवाली पोती जाती हैं, अगर शादी का अवसर हो तो दीवालों पर चूना लगाना आवश्यक है। तभी शादी के घर की रौनक बनती है। आदमी अपनी आमदनी के हिसाब से विवाह में खर्च करता है। अगर आमदनी कम हो तो भी रौनक पूरी होनी चाहिए। तभी विवाह का आनंद आता है। ग्रामीण अंचल में विवाहादि अवसरों पर दीवालों पर वर-वधू का नाम लिखना आवश्यक समझा जाता है। ऐसा मैने कई प्रदेशों के गांवों में देखा है। यहाँ भी घर की दीवालों पर वर-वधु के रंग बिरंगे नाम लिखे हुए थे। कम्प्यूटर प्रिंटिंग के कारण पेंटरों का धंधा चौपट हो गया। पेंटरों से साईन बोर्ड या अन्य लेखन-चित्रण कार्य कराने की बजाए लोग फ़्लेक्स बनवाना उचित समझते हैं। दीवाल लेखन देखने के बाद थोड़ी प्रसन्नता तो मिली कि पेंटरों के लिए अभी गाँव में काम बचा है। जिससे रोजगार चल सके।
चूल्हा निर्माण
सुबह के समय गाँव में सभी व्यस्त रहते हैं, बहारी झाड़ू, पानी भरना, नहाना-धोना और मंदिर पाठ-पूजा नित्य का कार्य है। रास्ते में ही झोपड़ी के नीचे एक महिला चूल्हा बनाने के लिए धान के भूसे के साथ मिट्टी सान रही थी। शहरों से और कस्बों से तो लकड़ी का चूल्हा गायब ही हो गया है। गैस ने लकड़ी के परम्परागत चूल्हे को चलन से बाहर कर दिया। यह देख कर खुशी हुई कि गांवों आज भी चूल्हे का चलन है। गृह्स्थ का सारा जीवन इसी चूल्हे के चक्कर में खप जाता है। चूल्हे पर चर्चा चल रही थी तो मैने द्वारिका प्रसाद जी से कहा कि कुछ साल पहले मैने चूल्हे पर एक आलेख लिखा था। जो बहुत सारे अखबारों एवं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। चर्चा होने पर उन्होने कहा कि "मैं भी अब चूल्हे पर लिखुंगा। मेरे दिमाग में भी आईडिया आया है।"
गाँव की दुकान एवं दुकानदार
गाँव की छोटी सी दुकान में दैनिक उपयोग की सभी सामग्री मिल जाती है। बच्चों के लिए तो यह महत्वपूर्ण ठिकाना है। जहाँ कहीं से भी रुपया दो रुपया मिला, सीधे भाग कर दुकान में पहुंचते हैं। दुकानदार के पास भी बच्चों को लुभाने वाली सारी चीजें रहती हैं, जिन्हें दुकान के सामने प्रदर्शित करता है। चाकलेट, नड्डा, गोली, बिस्किट बच्चों को आकर्षित करने के लिए काफ़ी हैं। हमें भी जब बचपन में कहीं से आने दो आने मिल जाते थे तो सब्र ही नहीं होता था। सीधे पड़ोस की दुकान में पहुंच कर उन पैसों को ठिकाने लगा कर आते थे। दुकान की रौनक भी बच्चों से बनी रहती थी और दुकानदार भी व्यस्त रहता था। अब भी गांवों में वैसा ही माहौल है। नए जमाने का असर थोड़ा बहुत हुआ है। 
परम्परागत नौबेड़िया किवाड़
ग्रामीण अंचल में घरों के दरवाजे भी सुंदर और मोहक होते हैं, जिन्हें चटक रंगों से पेंट किया जाता है। जिसकी जितनी आमदनी होती है उसके घर के दरवाजे भी वैसे ही होते हैं। दरवाजों को देख कर पता चल जाता है कि कौन कितना मालदार है। वर्तमान में शहरों के घरों में इमारती लकड़ी के पेनल डोर, बटन डोर और फ़्लश डोर का चलन है। परन्तु गांवों में अभी भी खेत की लकड़ी से ही दरवाजा बनाए जाने की परम्परा है। देशी बमरी (बबूल) की लकड़ी के दरवाजे मजबूत होते हैं। अगर बमरी के सार की लकड़ी मिल गई तो ये दरवाजे कई पीढियों तक साथ निभाते हैं। बबूल की लकड़ी में गोंद होता है, जो सूखने पर लकड़ी को लोहे जैसे मजबूती देता है। इस लकड़ी से गाँवों के बढई नौबेड़िया और ग्यारह बेड़िया दरवाजे बनाते हैं। अधिकतर घरों में नौबेड़िया दरवाजे मिलते हैं। यहां पर भी मुझे यह दरवाजे देखने मिले।
जैन तीर्थंकर पट
बातचीत करते हम मंदिर तक पहुंच गए, मंदिर के बारे में पता करने पर एक लड़का दौड कर गया और मंदिर के ताले की चाबी ले आया। हम पहुंचे तो मंदिर में लगा लोहे का गेट बंद था।  मंदिर में प्रवेश करने पर जैन तीर्थकंरो की स्थापित प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। पता नहीं ग्रामीण कब से इन प्रतिमाओं की पूजा कर रहे हैं। इन्होने भी इन प्रतिमाओं को स्थानीय देवताओं के नाम दे दिए होगें तथा इन प्रतिमाओं में अपने किसी देवता को स्थापित कर मान्य कर लिया होगा। जैन तीर्थंकरों का काले ग्रेनाईट से बना हुआ एक तो नौ प्रतिमाओं का पूरा पैनल ही है। साथ में दो देवियों की प्रतिमाएं हैं एक स्थानक मुद्रा में तथा दूसरी ध्यान मुद्रा में। इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के लिए ग्रामीणों ने बड़ा मंदिर बना लिया है तथा नित्य पूजन हो रहा है। मंदिर दर्शन करने के पश्चात हम अपने वाहन तक लौट आए। 
  
आगे पढें…… जारी है।

मल्हार: देऊर मंदिर

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प्राचीन नगर की सैर करते हुए सूरज सिर पर चढने लगा था। हमें अभी देऊर मंदिर देखना था। यहीं से एक रास्ता कसडोल एवँ गिरोदपुरी होते हुए रायपुर को जाता है। देऊर मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचने पर मन प्रसन्न हो गया। देऊर मंदिर की भग्न संरचना देखने से ही पता चलता है कि यह मंदिर विशाल रहा होगा।। इसका अधिष्ठान भूतल पर ही है। गर्भ गृह द्वार पर नदी देवियों की सुंदर प्रतिमाएँ हैं। अलंकृत द्वार की ऊंचाई लगभग 14 फ़ुट होगी। इसकी विशालता से ही मंदिर के महत्व का पता चलता है।
भव्य देऊर मंदिर (शिवालाय)
प्राचीन काल में मल्हार महत्वपूर्ण नगर रहा होगा। इस नगर को राजधानी का दर्जा प्राप्त था या न था। इस पर अध्येताओं के विभिन्न मत हैं। इस नगर का उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग सागर विश्वविद्यालय के के डी बाजपेयी एवँ एस के पाण्डे ने 1975 से 1978 के दौरान किया था। जिसमें प्रतिमाएँ, विभिन्न संरचनाएँ, सिक्के, पॉटरी, शिलालेख एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई थी। 
नदी देवियाँ (जमुना एवं गंगा)
इनके आधार पर आंकलन किया गया कि इस स्थान से पाँच ऐतिहासिक काल खंडों के प्रमाण मिलते है। आद्य ऐतिहासिक काल - 1000 से 350 ई पू, मौर्य, शुंग, सातवाहन काल - 300 से 350 ईसा पूर्व, शरभपुरीय एवं सोमवंशी काल - 300 से 650 ईस्वीं, सोमवंशी काल - 650 से 900 ईंस्वी, कलचुरी काल - 900 से 1300 ईस्वीं माना गया है।

भीमा - कीचक
इस अवधि तक यह नगर आबाद रहा। इसके पश्चात यह टीले रुप में प्राप्त हुआ, जिसके उत्खनन के पश्चात 7 वीं से 8 वीं सदी का यह मंदिर प्राप्त हुआ। इस शिवालय का निर्माण सोमवंशी शासकों ने कराया था। मंदिर के समीप ही प्रांगण में दो बड़ी प्रतिमाओं के शीर्ष भाग रखे हुए हैं। विशालता देखते हुए ग्रामीण जनों में महाभारत कालीन भीमा-कीचक के रुप में उनकी पहचान स्थापित हो गई।
शिव परिवार
मंदिर के द्वार पट पर शिव के गणों की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं, मुख्य द्वार शाखा पर परिचारिकाएँ स्थापित हैं। द्वार पर किए गए बेलबूटे के अलंकरण देख कर सिरपुर के तिवर देव विहार का स्मरण हो उठता है। मंदिर की भित्तियों में प्रतिमाएँ लगाई गई हैं तथा मंदिर के निर्माण में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया। द्वार के एक-एक पट का वजन ही कम से कम 10 टन होगा।
यज्ञ करते हुए ब्रह्मा
मंदिर की भित्तियों पर पशु, पक्षियों, यक्ष, यक्षिणी, गंधर्व, कीर्तीमुख, भारवाहक इत्यादि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। द्वार शाखा पर ब्रह्मा को यज्ञ करते हुए, उमा महेश्वर संग कार्तिकेय उत्कीर्ण किया है। द्वार पर स्थापित नदीं देवियों के वस्त्र अलंकरण मनमोहक हैं। शिल्पकार ने अपने कार्य को महीनता से अंजाम दिया है।
शिल्पकार द्वारा अधूरा छोड़ा गया महिषासुर मर्दनी का अंकन
शिवालय के द्वार पट पर एक अधूरी प्रतिमा का दागबेल दिखाई दिया। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दनी की बनाई जानी थी। शिल्पकार ने सुरमई से अंकन के बाद छेनी चलाकर उसे पक्का भी कर दिया था। इसके पश्चात प्रतिमा का अंकन होना था। पता नहीं क्या कारण था जो इतने बड़े एवं भव्य मंदिर में वह सिर्फ़ एक शिल्प अधूरा छोड़ कर चला गया।
कीर्तिमुख
शिवालयों के अलंकरण में कीर्ति मुख का स्थान अनिवार्य माना जाता है। भगवान शिव के इस गण को मंदिरों में आवश्यक रुप से बनाया जाता है। कीर्तिमुख को शिव ने वरदान दिया था। मंदिर की भव्यता देखने के पश्चात लगा कि यदि इस मंदिर का अवलोकन हम नहीं करते तो मल्हार के विषय में काफ़ी कुछ जानने से वंचित रह जाते। मंदिर दर्शन के पश्चात हम बिलासपुर की ओर चल पड़े। …… इति मल्हार यात्रा कथा।
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